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________________ चिरपरिचित अयोध्या नगरी में किसी समय मेघरथ राजाथे। उनकी महारानी मंगला सचमुच मंगला ही थी। महाराज मेघरथ के महल पर देवों द्वारा रत्न | वर्षा होने लगी। मंगला देवी ने रात्रि के शेष प्रहर में ऐरावत हाथी आदि सौलह | स्वप्न देख अपने मुख में प्रवेश करता हाथी देखा। प्रात: होते ही उसने प्राणनाथसे स्वप्नों का फल पूछा- आज तम्हारे गर्भ में तीर्थकर बालक ने अवतार लिया है- सौलह स्वप्न उसी की विभूति के परिचायक हैं। नौ महीने बाद चैत्रशुक्ला एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में महारानी ने श्रेष्ठ पुत्र रत्न को जन्म दिया। तीनों लोकों में आनन्द छा गया। सुमेरू पर्वत पर देवों ने अभिषेक किया व अयोध्या में भव्य जन्मोत्सव मनाया। बालक का नाम सुमतिनाथ रखा। बालक सुमतिनाथ द्वितीया चन्द्रमा की तरह बढ़ते गये तथा अपनी कलाओं से माता-पिता का हर्षोल्लास बढाते थे। शरीर की कांति तपे हुए स्वर्ण की तरह थी। अंग प्रत्यंग से लावण्य फूट पड़ता था। युवा होने पर महाराज मेघरथ उन्हें राज्य भार सौंपकर दीक्षित हो गए। भगवान सुमतिनाथ ने राज्य व्यवस्था को बहुत सुचारू रूप दे दिया था। राज्य में हिंसा, चोरी, झूठ, व्याभिचार आदि समाप्त हो गये थे। स्वप्नों का फल सुनकर भावी पुत्र के सुविशाल वैभव की कल्पना करके वह बहुत खुश हुई। उनका पाणिग्रहण योग्य कन्याओं के साथ हुआ था। सुख शान्तेि से उनका समय | भगवान सुमतिनाथ अपने पुत्र को राज्य देकर देवनिर्मित 'अभय' पालकी व्यतीत हो रहा था। तब एक दिन किसी कारणवश उनका चित्त विषय वासनाओं से पर बैठ गये। देवता अभया को समीप ही सहेतुक वन में ले गये। वहां उन्होंने विरक्त हो गया। जिससे उन्हें संसार के भोग नीरस एवं दु:ख प्रद प्रतीत होने लगे।। नर सुरगण साक्षी में बैशाख शुक्ला नवमी के दिन मघा नक्षत्र में दिगम्बरी हाय ! मैंने एक मूर्ख की भांती इतनी सूदीर्घ आयु व्यर्थ ही गवा दी। दूसरों को हित का मार्ग| | दिक्षा धारण कर ली। आत्मध्यान में लीन हो गये। थोड़े-थोड़े दिनों के अंतराल से आहार लेकर कठिन तपस्या करते हुए। बीस बरस बीत गये। बताऊं उनका भला करूं । यह जो बाल्यवस्था में सोचा करता था। वह सब इस यौवन तब उन्हें प्रियंकु वृक्ष के नीचे शुक्ल ध्यान के प्रताप से धातिया कर्मों का नाश एवं राज्य के सुख के उन्मांद में प्रवाहित हो गया। जैसे सैकड़ों नदियों का पान करने पर हो जाने पर चेत्र सुदी एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भी समुद्र की तृप्ति नहीं होती। ये विषयभिलाषाएं मनुष्य को आत्महित की ओर अग्रसर होने ही नही देती, इसलिए अब मैं इन विषय वासनाओं को तिलांजली देकर आत्महित MARATOP की ओर प्रवृति करता हूँ। INDIAN गर जैन चित्रकथा
SR No.033222
Book TitleChoubis Tirthankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherAcharya Dharmshrut Granthmala
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Comics, Moral Stories, & Children Comics
File Size9 MB
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