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________________ कहकर अज्ञानपूर्वक होनेवाले राग को ही कर्मबंध का अनंत संसार का कारण माना गया है। _ 'रागी सम्यग्दृष्टिः न भवति' इस विधान पर शंका उपस्थित की गई है कि यदि रागी सम्यग्दृष्टि नहीं है, तो क्या भरत-पांडवादिक सम्यग्दृष्टि नहीं थे * इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि वे सरागी होकर भी सम्यग्दृष्टि थे। फिर से प्रश्न उठाया गया कि वे रागी होकर सम्यग्दृष्टि कैसे थे? इस के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि- मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा उन को मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी जनित रागादि का अभाव होने से वे भी ज्ञानी सम्यग्दृष्टि वीतरागी ही हैं। इसी प्रकार आचार्य से बार-बार वीतराग स्वसंवेदन का विधान , करनेपर प्रश्न उठाया गया है कि - स्वसंवेदन को बार-बार वीतराग विशेषण क्यों दिया जाता है ?क्या स्वसंवेदन दूसरे प्रकार का भी होता है ? ___ इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं - 1) जो विषय-कषाय के अनुरागपूर्वक स्वसंवेदन होता है वह सराग स्वसंवेदन अज्ञानी को होता है। 2) जो भेद- ज्ञानपूर्वक आत्मस्वरूप का स्वसंवेदन होता है वह वीतराग स्वसंवेदन है और वह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि को होता है। _____ उन उपर्युक्त दोनों प्रश्नोत्तरों की चर्चा से आचार्य जयसेन ने भी चतुर्थ गुण-स्थानवर्ती सरागी सम्यग्दष्टि को भी जघन्यरूप से वीतरागी-ज्ञानी-सम्यग्दृष्टि माना है ; तथा उनको वीतरागी स्वसंवेदन आत्मानुभूति स्वीकृत की गई है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति भेद ज्ञान-पूर्वक शुद्धोपयोग रूप आत्मानुभूति के विना होती नहीं, ऐसा स्पष्ट विधान किया गया है। 'अयं अहं इति अनुभूतिः' 'यह मैं हूँ' इस प्रकार की स्वानुभूति
SR No.032868
Book TitleNijdhruvshuddhatmanubhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar, Lilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2007
Total Pages76
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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