________________ (37) द्रव्यार्थिकनय से यह आत्मा केवल एक ही है। उसे जानना यथोदित है / उस अंतःकरणवृत्ति को चिंतारोध नियंत्रणा कहते हैं। . ' अथवा अभाव को निरोध कहते हैं और अन्य चिंताओं का नाश होना, अभाव अथवा निरोध कहलाता है। अथवा अन्य चिंताओं से रहित जो एक चिंतात्मक एक चिंतारूप ( चितवनरूप) अपने आत्मस्वभाव का ज्ञान वह भी एक अग्र आत्मा कहलाता है। तत्रात्मन्यसहाये यचिंतायाः स्यानिरोधनम् / / तद्ध्यानं तदभावो वा स्वसंधित्तिमयश्च सः // 65 // अर्थ - उस स्वभावरूप असहाय ( पारिणामिकभाव) एक अपने आत्मा में चिंतवन करने से चिंता का निरोध होता है, वह ध्यान चिंता का ( विकल्प का ) अभाव करता है और वह स्वस्वभाव में स्वसं वित्तिमय (स्वानुभूतिमय) होता है। ततोऽनपेतं यज्ज्ञानं तध्दयं ध्यानमिष्यते / धर्मो हि वस्तुयाथात्म्यमित्यार्षेऽप्यभिधानतः // 54 // अर्थ - वस्तुस्वरूप को जानकर आत्मस्वभाव को जो जानता है उस आत्मानुभूति से अनपेत ( अविनाभावी) जो ज्ञान उस से जो प्राप्त होता है उसे धर्मध्यान (शुध्दात्मानुभव कहते हैं / क्योंकि वस्तु के याथात्मय स्वरूप को जानना ही आर्षग्रन्थों में धर्म कहा गया है / इस से सिध्द हुआ कि अव्रती .गृहस्थ स्वरूप को जानकर अपने स्वभाव का ध्यान कर सकता है और उस ध्यान को धर्मध्यान ( शुध्दात्मानुभव - चिंतानिरोध ) कहते हैं / 18) शंका - अविरत सम्यक्त्वी की शुध्दात्मानुभूति और देशविरत सम्यक्त्वी की शुध्दात्मानुभूति और भावलिंगी सकलसंयमी की शुध्दात्मानुभूति- इन में फर्क क्या है ? . उत्तर - अविरत सम्यक्त्वी की शुध्दात्मानुभूति, देशविरत समयक्त्वी की शुध्दात्मानुभूति और भावलिंगी सकलसंयमी की शुध्दात्मानुभूति जाति अपेक्षा से समान है लेकिन गुणस्थान की अपेक्षा से, दृढता की-स्थिरताकी अपेक्षा से अंतर है।