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________________ इसलिये अव्रती गृहस्थ जीव अपने निजस्वभाव का ध्यान कर सकता है / . इतना ही नहीं, किसी भी अवस्था में ( बैठे हुए, लेटे हुए अथवा अर्धपद्मासन, पद्मासन, खड्गासनादि में ) ध्यान हो सकता है / देखो, महापुराण पर्व 21, श्लोक 75 देहावस्था पुनर्यैव न स्याद्ध्यानोपरोधिनी / तदवस्थो मुनिर्व्यायेत् स्थित्वासित्वाधिशय्य वा / / 75 / / इसलिये अव्रती गृहस्थ भी वस्तु स्वरूप को जानकर अपने स्वभाव का ( शुध्दनय के विषय का) जब चितवन करता है तब सम्यक्त्व होता है। देखो समयसार गाथा नं. 11 ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुध्दणओ / भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो // 11 // अर्थ - व्यवहारनय अभूतार्थ (आश्रय करने योग्य नहीं) है, और शुध्दनय भुतार्थ है ऐसा ऋषीश्वरों ने दिखाया है / जो जीव भूतार्थ का आश्रय करता है वह जीव निश्चयकर सम्यग्दृष्टि होता है / ... इस से सिध्द होता है कि अव्रती गृहस्थ जीव वस्तुस्वरूप जानकर शुध्दनय का आश्रय करता है ( ध्यान करता है, शुध्दात्मानुभव करता है ) और वह उसी समय सम्यक्त्वी होता है / जो जीव अनादि मिथ्यादृष्टि है, अव्रती गृहस्थ है वह वस्तुस्वरूप को जानकर जब शुध्दनय का चिंतवन करता है तब शुध्दत्मानुभव निर्विकल्प होता है, उसी समय दर्शनमोह का उपशम होता है, प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है, सम्यग्ज्ञान होता है, शुध्दोपयोग होता है / वहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और स्वरूपाचरणचारित्र (शुध्दोपयोग) होने में समय भेद नहीं / यह ही प्रवचनसार गाथा नं. 80 की तात्पर्यवृत्ति में श्री जयसेनाचार्यजी ने दिखाया है / इसका उध्दरण पृष्ठ नं. 6 पर दिया है।
SR No.032868
Book TitleNijdhruvshuddhatmanubhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar, Lilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2007
Total Pages76
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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