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________________ (25) (शुध्दात्मानुभव) का विषय (ज्ञेय) पारिणामिकभाव है। गवार्थ यह है कि व्याख्यान करते समय यह सर्वत्र जानना चाहिये / " . . 12) शंका - श्री शुभचंद्राचार्यजी ज्ञानार्णवमें लिखते हैं कि - "खपुष्पमथवा शृङ्गं खरस्यापि प्रतीयते / . न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिध्दिहाश्रमे // 17 // प्रकरण 4 इसका क्या अर्थ है ? . उत्तर - इस प्रकरण का नाम है ध्यान गुण दोष / इसमें शुक्लध्यान की दृष्टि से कथन किया है। उस श्लोक का यह अर्थ है कि आकाश पुष्प अथवा खर विषाणका होना कदाचित् सम्भव है परन्तु किसी भी देशकाल में गृहस्थाश्रम में ध्यान की (याने शुक्लध्यान की ) सिध्दि होना सम्भव नहीं है। इस श्लोक के कथन के द्वारा, "गृहस्थजीवको धर्मध्यान होता है" इस कथन को बाधा नहीं आती, क्योंकि श्रीशुभचंद्र आचार्यजी ही ज्ञानार्णव ग्रंथ में लिखते हैं कि - स्वयमेव प्रजायन्ते विना यत्नेन देहिनाम् / अनदिदृढसंस्कारादुर्ध्यानानि प्रतिक्षणम् // 43 // प्रकरण 26 अर्थ - यह दुर्ध्यान (अप्रशस्त अथवा आर्त रौद्र ध्यान) हैं सो जीवों के अनादिकाल के संस्कारसे विना ही यत्न के स्वयमेव निरन्तर उत्पन्न होते हैं / इससे सब छद्मस्थों को निगोदादि से संज्ञी पंचेंद्रिय तक जीवों को ध्यान है, यह सिध्द हुआ। इत्यातरौद्रं गृहिणामजस्त्रं ध्याने सुनिन्द्ये भवतः स्वतोऽपि / परिग्रहारम्भकषायदोषैः कलङ्कितेऽन्तःकरणे विशंकम् // 41 // प्रकरण 26
SR No.032868
Book TitleNijdhruvshuddhatmanubhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar, Lilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2007
Total Pages76
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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