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________________ . . . . . (8) जो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण / तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोगप्पदीवयरा // 33 // - इस की टीका में श्री जयसेनाचार्यजी लिखते हैं - "किंच यथा कोऽपि देवदत्त आदित्योदयेन दिवसे पश्यति, रात्री किमपि प्रदीपेनेति / तथादित्योदयस्थानीयेन केवलज्ञानेन दिवसस्थानीयमोक्षपर्याये प्रदीप स्थानीयेन रागादिविकल्परहित परमसमाधिना निजात्मानं पश्यतीति / " अर्थ - जिस तरह कोई एक देवदत्त किसी वस्तु को दिन में सूर्य के प्रकाश में देखता है और रात्रि में प्रदीप के प्रकाश में देखता है। उसी तरह सूर्य की जगह भगवान केवलज्ञान से दिवसस्थानीय मोक्षपर्याय में शुद्धात्मा को संसार में दीपस्थानीय मतिश्रुतज्ञान से रागादिविकल्परहित (शुद्धोपयोग) परमसमाधि से (शुद्धोपयोग से ) निजात्मा का ( स्वभाव शुद्धात्मा का ) अनुभव करता है। इससे यह सिद्ध होता है कि जो अव्रती सम्क्त्वी जीव है उस के पास निशास्थानीय संसार अवस्था में भी अल्प प्रकाशवाला दीपक है याने जघन्य शुद्धात्मानुभव है; और मिथ्यात्व, सासादान, मिश्र गुणस्थानवी जीवों के पास अल्प प्रकाशवाला भी दीपक नहीं है याने मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र गुणस्थानवी जीव शुद्धात्मा का जघन्यरूप से भी अनुभव नहीं करते हैं। श्री कुंदकुंदाचार्य बारसाणुपेक्खा में (कुंदकुंदभारती पृष्ठ 319) लिखते हैं - तम्हा संवरहेदू झाणो त्ति विचिंतए णिच्वं // 64 // . अर्थ - शुद्धोपयोग से जीव के धर्मध्यान और शुक्लध्यान होता है, इसलिये ध्यान (शुद्धात्मानुभव) संवर का कारण है, ऐसा निरन्तर विचार करना चाहिये।" . . चतुर्थ गुणस्थान में धर्मध्यान होता है और शुद्धोपयोग से धर्मध्यान
SR No.032868
Book TitleNijdhruvshuddhatmanubhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar, Lilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2007
Total Pages76
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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