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________________ आगमभाषा . अध्यात्मभाषा " तच्च परिणमनमागमभाषयौप- | "अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धात्माभि शमिकक्षायोपशमिकक्षायिक मुखपरिणामः शुद्धोपयोग इत्यादि भावत्रयं भण्यते।" पर्यायसंज्ञां लभते / " . और उस ही परिणमन को आगमभाषा | और उस ही परिणमन को अध्यात्मसे औपशमिक, क्षायोपशमिक और भाषा से शुद्धात्माभिमुख पश्णिाम क्षायिक सम्यक्त्व इस प्रकार तीन | (याने जो चेतनोपयोग परमशुद्ध भावरूप कहा जाता है। पारिणामिकभाव की ओर लक्ष्य देकर अथवा परमशुद्धपारिणामिकभाव को विषय बनाकर जो शुद्धात्मानुभव परिणाम प्रकट होता है ) शुद्धोपयोग निर्विकल्प, स्वसंवेदन, समाधि, निश्चय सम्यक्त्व, अभेद रत्नत्रय इत्यादि नामों से (संज्ञाओं से) कहा जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रथमोपशम अविरत सम्यक्त्व की अथवा क्षयोपशम अविरत सम्यक्त्व की, क्षायिक अविरत सम्यक्त्व की प्राप्ति होना इसी को शुद्धोपयोग (शुद्धात्मानुभव) कहा है। " - इस विषय में प्रवचनसार गाथा क्र. 80 में कहा है कि - . . . "जो जाणदि अरहंतं दव्वत्त गुणत्त पजयत्तेहिं। .. सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं // 8 // - प्रवचनसार अर्थ - जो अरहंत को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने के द्वारा जानता है वह अपने आत्मा को जानता है, उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है।"
SR No.032868
Book TitleNijdhruvshuddhatmanubhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVeersagar, Lilavati Jain
PublisherLilavati Jain
Publication Year2007
Total Pages76
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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