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________________ तीर्थङ्कर सुपार्श्वनाथ एवं उनकी पञ्चकल्याणक तीर्थ भूमियाँ - डॉ. कमलेशकुमार जैन, वाराणसी यस्तीर्थ स्वार्थसम्पन्नः परार्थमुदपादयत्। सप्तमं तु नमस्तस्मै सुपार्थाय कृतात्मने।। वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौबीस तीर्थङ्करों में सातवें तीर्थङ्कर भगवान् सुपार्श्वनाथ का जन्म काशी नगरी में हुआ था। तदनन्तर क्रमश: आठवें तीर्थङ्कर भगवान् चन्द्रप्रभ, ग्यारहवें तीर्थङ्कर भगवान् श्रेयांसनाथ और तेइसवें तीर्थङ्कर भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म भी इसी काशी नगरी में हुआ था। ___ उपर्युक्त चार तीर्थङ्करों में से भगवान् सुपार्श्वनाथ का चिह्न नन्द्यावर्त स्वस्तिक है और भगवान् पार्श्वनाथ का चिह्न सर्प (नाग) है। काल की अपेक्षा भगवान् पार्श्वनाथ परवर्ती हैं और जन-जन की श्रद्धा से जुड़े हैं तथा भगवान् सुपार्श्वनाथ पूर्ववर्ती हैं और उपकारक होने से यद्यपि वे जनजीवन से जुड़े हैं तथापि दोनों के मध्यकाल का एक लम्बा अन्तराल है। अत: दोनों तीर्थङ्कर पृथक्-पृथक् हैं। इन सबके बावजूद पार्श्व और सुपार्श्व इस नाम साम्य के कारण सामान्य लोगों में वे परस्पर इतने घुल-मिल गये हैं कि भगवान् पार्श्वनाथ का जनजीवन से निकट का सम्बन्ध होने के कास्य उनका चिह्न सर्प सुपार्श्वनाथ के साथ भी जुड़ गया। फलस्वरूप भगवान् पार्श्वनाथ के ऊपर कमठकृत उपसर्ग का निवारण करते हुए पद्मावती और धरणेन्द्र में से ऊपर फणावली के माध्यम से भगवान् पार्श्वनाथ की रक्षा करने वाले धरणेन्द्र की फणावली भगवान् सुपार्श्वनाथ से भी जुड़ गयी और भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्तियों की प्रतीक फणावली भगवान् सुपार्श्वनाथ की मूर्तियों का एक अङ्ग बन गयी, अत: भगवान् सुपार्श्वनाथ की अनेक मूर्तियों पर यह फणावली आज भी प्राय: देखी जा सकती है। लोकजीवन पर व्यापक प्रभाव डालने वाले भगवान् सुपार्श्वनाथ वाराणसी के तत्कालीन अधिपति इक्ष्वाकुकुल-शिरोमणि महाराजा सुप्रतिष्ठित की महारानी माता पृथिवी अथवा पृथिवीसेना की कुक्षि (गर्भ) में भाद्रपद शुक्ला षष्ठी को आये और ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में षष्ठ तीर्थङ्कर भगवान् पद्मप्रभ के जन्म के दस लाख पूर्व सहित नौ हजार करोड़ सागरोपम के व्यतीत हो जाने पर उनका जन्म हुआ। नील वर्ण से सुशोभित भगवान् सुपार्श्वनाथ की आयु चौरासी लाख पूर्व और ऊँचाई दो सौ धनुष थी। उनका राज्यकाल बीस पूर्वाङ्ग सहित चौदह लाख पूर्व प्रमाण था। आपको वनलक्ष्मी का विनाश देखकर वैराग्य उत्पन्न हो गया। तब आपने ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन पूर्वाह्न में विशाखा नक्षत्र में सहेतुक वन में तृतीय उपवास के साथ काशी में जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की। आपके साथ एक हजार राजकुमारों ने भी उस समय दीक्षा ग्रहण की थी। कुछ समय पश्चात् फाल्गुन कृष्णा षष्ठी को आपको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। कालान्तर में भगवान् सुपार्श्वनाथ ने फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को अनुराधा नक्षत्र में सिद्धभूमि सम्मेदशिखर के इक्कीसवें कूट सुपार्श्वनाथ प्रभास कूट से एक हजार अन्य मुनिराजों के साथ मुक्ति पद प्राप्त किया। तत्पश्चात् इसी कूट से 49 कोड़कोड़ी, 84 करोड़, 72 लाख, सात हजार, सात सौ ब्यालीस अन्य मुनिराजों ने भी मुक्ति प्राप्त की। इस प्रभास कूट -35
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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