________________ श्रुतकेवली भद्रबाहु और उनका समाधिमरण - डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद तीन अर्हत् केवली गौतम, सुधर्मा स्वामी और जम्बूस्वामी ने संघ का नेतृत्व किया। अनन्तर द्वादशांग श्रुत के ज्ञाता विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु- ये पांच श्रुतकेवली हुए। गोवर्द्धनाचार्य के साक्षात् शिष्य प्रभावशाली तेजोमयी व्यक्तित्व सम्पन्न श्रुतकेवली अप्रतिम प्रतिभावान् थे। भद्रबाहु का जन्म पुण्डवर्द्धन राज्य के कोटिकपुर ग्राम में राजपुरोहित के घर हुआ था। बाल्यकाल में साथियों के साथ क्रीड़ा करते हुए बालक भद्रबाहु ने एक बार चौदह गोलियों को एक श्रेणी में एक दूसरे के ऊपर चढ़ा दी। उसी समय उस मार्ग से चतुर्दर्शपूर्वधर गोवर्द्धनाचार्य निकले। उन्होंने बालक के कौशल को देखकर जाना कि यह बालक चौदह पूर्वो का ज्ञाता होगा, अत: उन्होंने भद्रबाहु के पिता से भद्रबाहु को अपने साथ ले जाने की अनुमति ली और अपने पास रखकर अध्ययन कराया तथा दीक्षा प्रदान की। अनन्तर चतुर्दशपूर्व के ज्ञाता होकर श्रुतकेवली-परम्परा में पट्ट पर सुशोभित हुए। श्रुतकेवली भद्रबाहु ने ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए एक समय अवन्ति में प्रवेश किया। आहारार्थ जिनदासश्रेष्ठी के घर पर वहाँ पालने में झूलते हुए बालक ने 'चले जाओ' यह वाक्य तीव्र स्वर में कहा, तब भद्रबाहु ने प्रश्न किया कितने दिन के लिए? शिशु ने उत्तर में 12 वर्ष के लिए कहा। भद्रबाहु स्वामी आहार किये बिना ही लौट आये और संघ को सुदूर जाने का आदेश दिया। बृहत्कथाकोषकार इसी प्रसंग में लिखते हैं कि भद्रबाहु ने सम्राट चन्द्रगुप्त को घटना बताकर कहा कि द्वादशवर्ष का दुष्काल पड़ेगा। तब मुकुटबद्ध सम्राट ने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। रत्ननन्दीकृत भद्रबाहु में उल्लेख मिलता है कि भद्रबाहु जब अवन्ति पधारे तब वहाँ चन्द्रगुप्त का साम्राज्य था। चन्द्रगुप्त को 16 स्वप्न दिखे उन्हें उन्होंने आचार्य भद्रबाह को बताया उन्होंने स्वप्नों का फल अनिष्ट सूचक बताया तो सम्राट ने जैनेश्वरी दीक्षा अङ्गीकार कर ली। दुष्काल के कारण भद्रबाहु ने विशाखाचार्य को आदेश देकर संघ को दक्षिण की ओर भेज दिया स्वयं अवन्ति में रुक गये। रत्ननन्दी द्वारा रचित भद्रबाहु चरित के अनुसार वे स्वयं संघ को लेकर आगे बढ़े; किन्तु अपनी अल्पायु जानकर विशाखाचार्य के नेतृत्व में संघ को आगे भेजा। श्रवणबेलगोल की चन्द्रगिरि पहाड़ी पर उल्लिखित शिलालेखों के आधार से कहा गया कि श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वयं विशाल श्रमणसंघ को लेकर दक्षिणभारत में पहुँचे, वहाँ उन्होंने अनेक शिष्यों को शिक्षा दीक्षा देते हुए समय व्यतीत किया। शिष्य समुदाय में चन्द्रगुप्त विशेष थे वे सदा गुरु के सन्निकट रहकर ध्यान, अध्ययन में तत्पर रहते थे। श्वेताम्बर-साहित्य में भद्रबाहु का विस्तार से वर्णन है। वहाँ गृहस्थ जीवन के प्रसंग कम मिलते हैं; किन्तु श्रमण अवस्था के विविध प्रसंग हैं। उन्होंने स्थूलभद्र को पूर्वो की वाचना करायी थी। श्रमणसंघ को वाचना के द्वारा उपदेश दिया। आदि अनेक प्रसंग विस्तार के साथ वर्णित हैं उन्हें आलेख में प्रस्तुत किया जायेगा। श्रुतकेवली भद्रबाहु को प्राकृतिक संकेतों के आधार पर अपना अन्तिम समय सन्निकट प्रतीत हुआ तो उन्होंने समाधिमरण धारण किया, क्योंकि सल्लेखना-समाधिमरण धारण करने के निम्न कारण बताये गये हैं मन्दाक्षत्वेऽतिवृद्धत्वे चोपसर्गे व्रतक्षये, दुर्भिक्षे तीव्ररोगे चासाध्ये काय बलात्यये। -133