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________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली : एक नया चिन्तन - डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर भारत एक विशाल देश है। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक हजारों किलोमीटर लम्बाई में फैले इस भारतवर्ष में रहन-सहन, खान-पान एवं भाषा आदि अनेक विभिन्नताएँ भी इससे कम नहीं हैं। अनेक जातियों और सम्प्रदायों का भी यह भारत अजायबघर है। इस प्रकार अखण्ड भारत की एकता के शत्रु साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भाषावाद, धार्मिक उन्माद आदि अनेक विघटनकारी तत्त्वों के रहते हुए भी यह भारत यदि संगठित है, एकता के सूत्र में आबद्ध है; तो उसका एकमात्र कारण हमारे ये तीर्थ हैं, जो उत्तर से लेकर दक्षिण एवं पर्व से पश्चिम तक फैले हए हैं। ये एक ऐसे मजबूत सूत्र हैं, जिनमें विभिन्न वर्गों और गन्ध वाले पुष्प सुगठित रूप से पिरोये हुए हैं, संगठित हैं और शोभित हो रहे हैं। तीर्थों रूपी सूत्र में आबद्ध होकर भारत की इन विभिन्नताओं ने एक रंग-बिरंगे सुगन्धित पष्पों की आकर्षक माला का रूप ले लिया है; विघटनकारी विभिन्नता ने आकर्षक एकता का रूप ले लिया है। यह भी एक विचित्र संयोग ही कहा जाएगा कि श्रमण-संस्कृति के चौबीसों तीर्थङ्कर और वैदिक-संस्कृति के चौबीसों अवतार उत्तर भारत में ही हुए हैं तथा दोनों ही संस्कृतियों के प्रमुख आचार्य दक्षिण भारत की देन हैं। यद्यपि यह तथ्य भारत के सभी धर्मों, संस्कृतियों और तीर्थों पर समान रूप से प्रतिफलित होता है, तथापि यहाँ जैनधर्म और श्रमण संस्कृति के सन्दर्भ में विचार अपेक्षित है। जैनधर्म व श्रमण संस्कृति से सम्बन्धित जितने भी सिद्धक्षेत्र हैं, वे सभी उत्तर भारत में हैं, एक भी सिद्धक्षेत्र दक्षिण भारत में नहीं है। अत: दक्षिण भारत वाले तो सिद्धक्षेत्रों की वन्दना करने के लिए उत्तर भारत में सहज आते; पर यदि दक्षिण भारत में गोम्मटेश्वर बाहुबली की इतनी विशाल मूर्ति नहीं होती तो उत्तर भारत के धार्मिक यात्री दक्षिण भारत किसलिए जाते? यह एक विचारणीय प्रश्न है। दक्षिण भारत में इतनी विशाल मूर्ति के निर्माण के कारण अनेक हो सकते हैं और ऐतिहासिक एवं किंवदन्तियों के आधार पर अनेक बताये भी जाते हैं, पर मेरी दृष्टि में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण दक्षिण-भारत में धार्मिक इतिहास या प्राणों के अनुसार तीर्थङ्करों के कल्याणक आदि महत्त्वपूर्ण स्थान न होने के कारण उत्तर भारत के धार्मिक यात्रियों को दक्षिण भारत आने के लिए आकर्षण पैदा करना भी हो सकता है। ___ यदि सम्मेदशिखर और गिरनार पर कोई आकर्षक मन्दिर या मूर्ति न हो तो भी लोग उनकी यात्रा अवश्य करेंगे; कारण कि इन क्षेत्रों का सम्बन्ध तीर्थङ्करों के पञ्चकल्याणकों से है। पर दक्षिण भारत का सम्बन्ध तीर्थङ्करों के पञ्चकल्याणकों से न होने के कारण जब तक कोई विशेष आकर्षण न होगा, उत्तर भारत के यात्रियों का इतनी दूर आना, कम से कम उस युग में तो असम्भव ही था, जबकि यातायात के साधन सुलभ न थे। उत्तर से दक्षिण जाने में वर्षों लग जाते थे, रास्ते में अगणित कठिनाइयाँ थीं, जान की बाजी लगाकर ही जाना पड़ता था। जिसने इस विशाल मूर्ति का निर्माण कराया है, उसके हृदय में यह भावना भी अवश्य रही होगी कि ऐसे आश्चर्यकारी जिनबिम्ब की स्थापना की जावे कि जो हिमालय की तलहटी तक अपना आकर्षण बिखरे सके। मूर्ति -- -
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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