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________________ 14 जैन योग : चित्त-समाधि भी उल्लेख करते हुए बौद्ध-दर्शन सम्मत बोधिसत्त्व की तुलना हरिभद्र ने सम्यग्दृष्टि साधक से की है / 13 इसी ग्रन्थ में सांख्याचार्य गोपेन्द्र के मत की तुलना भी चरम पुद्गलावर्त के सिद्धांत से की गई है / इसी प्रकार योगदृष्टिसमुच्चय में भी गुणस्थान से संबंधित चरम-पुद्गलावर्त,45 यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण47 एवं श्रेणियों48 का पालम्बन लिया गया है। जहां तक जैनेतर परिभाषानों का प्रश्न है, योगदृष्टिसमुच्चय में पतंजलि, भगवद्दत्त एवं भदन्त भास्कर के ग्रंथों में उपलब्ध परिभाषाओं की मित्रा, तारा, आदि दृष्टियों से संगति प्रदर्शित की गई हैं / इस प्रसंग में एक उल्लेखनीय बात तो यह है कि योगदृष्टिसमुच्चय की दृष्टि-विषयक सारी कल्पना ही शायद वसुबन्धु के अभिधर्मकोश पर लिखे स्वोपज्ञभाष्य के इस ग्रंश पर आधारित है–समेघामेघरात्रिदिवरूपदर्शनवत् क्लिष्टलौकिकीशैक्ष्यशक्षीभिदष्टिभिर्धर्मदर्शनम् / 50 योगशतक में भी अपुनर्बन्धक आदि साधकों का जो निरूपण किया गया है, उसके मूलभूत आधार गुणस्थान ही हैं / इस ग्रन्थ की स्वोपज्ञ टीका में हरिभद्र ने महायानियों की बोधिसत्त्व संबंधी उस कल्पना का भी मूल्यांकन किया है, जिसके अनुसार बोधिसत्त्व सब प्राणियों की मुक्ति के बाद ही अपने निर्वाण का संकल्प करता है / 52 इसी प्रकार योगविशिका में भी गुणस्थानों से संबंधित देशचरित्री सर्वचरित्री, श्रेणी, अयोगयोग आदि का उल्लेख है। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त अपने ब्रह्मसिद्धांतसमुच्चय में भी अपुनर्बन्धक का विस्तार से विवेचन हरिभद्र ने किया है55 एवं प्रमुदिता जैसे बौद्ध तथा प्रशान्त-वाहिता जैसे पातंजल-दर्शन59 के पारिभाषिक शब्दों के माध्यम से जैन-साधना के हृदय को स्पष्ट किया है। योगदर्शन के व्यासभाष्य में उद्धृत निम्नोक्त पद्य का उल्लेख हम हरिभद्र के योगबिन्दु एवं ब्रह्मसिद्धांतसमुच्चय 1 में भी पाते हैं-- प्रागमेनानुमानेन योगाभ्यासरसेन च / त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम् // 2 VI जिनसेनकृत महापुराण में योग इस पुराण के ध्यानतत्त्वानुवर्णन नामक इक्कीसवें पर्व में योग-साधना का विस्तृत वर्णन गौतम-श्रेणिक संवाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है / ध्यान के पर्यायार्थक शब्दों में योग, समाधि, धीरोध (चित्तवृत्ति-निरोध) स्वान्त-निग्रह एवं अन्तःसंलीनता का समावेश है / इस पर्व में आसन, प्राणायाम आदि का भी निरूपण है।64 ध्यानयोग्य मंत्रों में अहं, अर्हद्भ्यो नमोऽस्तु, नम: सिद्धेभ्यः, नमोऽर्हत्-परमेष्ठिने आदि बीजमंत्रों का उल्लेख है / 5 ऐसा प्रतीत होता है कि अपने समय तक विकसित जैन-योग सम्बन्धी सारे तत्त्वों का जिनसेन ने एक स्थान पर हृदयाकर्षक ढंग से संग्रह कर दिया था। VII शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णव में योग ज्ञानार्णव मध्ययुग का जैन-साधना-विषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है / इसमें योग के सभी अंगों पर विस्तृत विवरण उपलब्ध है। ध्यान-विषयक प्राचीन जैन-परम्परा के
SR No.032865
Book TitleJaina Meditation Citta Samadhi Jaina Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages170
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size12 MB
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