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________________ जैन परम्परा में योग - डॉ. नथमल टाटिया I जैन आगमों में योग प्राचीन जैन एवं बौद्ध आगम साहित्य में योग (प्राकृत जोग) शब्द का प्रयोग एक विशेष अर्थ में हुआ है। इस शब्द की व्युत्पत्ति "युज्' धातु के आधार पर की जाती है। पाणिनीय धातुपाठ में “युज् समाधौ” (दिवादिगणीय, युज्यते)1 एवं "युजिर् योगे' (रूधादिगणीय, युनक्ति, युङ्क्ते) ये दो धातुएं उपलब्ध हैं / प्राचीन जैन और बौद्ध साहित्य में प्रयुक्त योग शब्द का सम्बन्ध "युजिर् योगे' से है, ऐसा प्रतीत होता है / प्राकृत "जोग' शब्द का सामान्य अर्थ क्रिया है, जो प्रशस्त एवं अप्रशस्त या शुभ एवं अशुभ- इन दोनों प्रकार की हो सकती हैं / बौद्ध-साहित्य में योग शब्द का प्रयोग बन्धन या संयोजन के अर्थ में हुआ है, जो चार प्रकार का होता है—कामयोग, भवयोग, दिट्ठियोग, अविज्जायोग / इस योग के समानान्तर अपर शब्द आस्रव, अोघ एवं उपादान भी हैं। जैन-दर्शन में भी योग को आस्रव कहा जाता है। अत: यह स्पष्ट है कि जैन एवं बौद्ध-परम्परा में योग शब्द का प्रयोग सांसारिक बन्धन के अर्थ में प्रचलित था, यद्यपि बौद्ध-परम्परा में इसका अर्थ अकुशल क्रियाओं के लिए ही होता था। __ उपर्युक्त अर्थों के अतिरिक्त अन्य अर्थों में भी योग शब्द के प्रयोग जैन-परम्परा में पाये जाते हैं, जो निम्नोक्त उद्धरणों से स्पष्ट प्रतीत होते हैं (1) झाणजोगं समाहर्ट्ज कायं वोसेज्ज सव्वसो / (2) कुव्वंति संथवं ताहिं पब्भट्ठा समाहिजोगेहिं / ' (3) इह जीवियं अणियमित्ता पब्भट्ठा समाहिजोहिं / (4) तवं चिमं संजमजोगयं च सज्झायजोगं च सया अहिए।" (5) जोगं च समणधम्ममि, जुजे अणलसो धुवं / 10 (3) वसे गुरुकुले णिच्च जोगवं उवहाणवं / 11 (7) विणीय-विणये दन्ते जोगवं उवहाणवं / 12 (8) पसन्तचित्ते दन्तप्पा जोगवं उवहाणवं / 13 (6) अज्झप्पझाणजोहिं पसत्थदमसासने 114 (10) निव्वियारेणं जीवे वइगुत्ते अज्झप्पजोगझाणगुत्ते यावि भवइ / 15 (11) जोग-सच्चेणं जोगं विसोहेइ / 16 (12) सामणाणं जोगाणं जं खडियं जं विराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं / "
SR No.032865
Book TitleJaina Meditation Citta Samadhi Jaina Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages170
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size12 MB
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