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________________ रानी अंजनासुन्दरी [53 हृदयको शांत किया तथा कुछ दिन वहां ही रहे फिर मादित्यपुरमें आकर दोनों पति-पत्नी पुत्र सहित आनन्दसे समय व्यतीत करने लगे। फिर उन्होंने अपनी जीवनलीला अत्यन्त सुख तथा राजलक्ष्मीके साथ व्यतीत की। कहीं पर प्रतिमाओंको धूपमें रखनेसे अंजनाको यह कष्ट हुआ था, यह जानकर इस चरित्रको पढ़कर प्रत्येक पाठक और पाठिकाके हृदयमें इस प्रश्नका उत्पन्न होना सम्भव हो सकता है कि इतने बड़े राजकुलमें जन्म लेनेवाली तथा एक महान् वंशमें उत्पन्न हुए राजकुमार वायुकुमार की सहचारिणी (वधू) राजकुमारी अंजनासुन्दरीको ऐसे अवर्णनीय दुःखोंका सामना किस कारणसे करना पड़ा ? इस प्रश्नका उत्तर सरल है और अत्यन्त सरल है। इस बातको माननेमें सर्व साधारण सहमत हैं कि पूर्व जन्ममें उपार्जन किये हुए शुभाशुभ कर्मोका फल सबहीको अवश्य भोगना ही पड़ता है। इतर मनुष्योंको कथा तो दूर ही रही पर स्वयं तीर्थकर भी इन कर्मोकी विडम्बनाओंसे नहीं बचे। पुराणोंका स्वाध्याय करनेवाले पाठकोंसे यह छिपा नहीं होगा कि परमपूज्य आदिनाथ भगवानको भी असाता वेदनीय कर्मके उदयसे छः महीनों तक आहार नहीं मिला था तो राजकुमारी अंजनासुन्दरीको उन्हीं कर्मोके जालमें फंसकर इतनी वेदना और यातनाको सहन करना पड़ा, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इसकी कथा इस प्रकार है कि अपने पूर्व जन्ममें अंजनासन्दरी किसी राजाकी पटरानी थी। उस राजाके यहां अंजनाके अतिरिक्त और भी रानियां थीं, पर इनको अपने पदका बडा अभिमान था। किसी कारणसे अंजनासे और एक सपत्नी (सौत) रानीमें ईर्षा हो गई। बस ईर्षावश होकर अपने पटरानी पदके अभिमानसे अंजनाने जिनेन्द्र भगवानके प्रतिबिंबको मंदिरके
SR No.032862
Book TitleAetihasik Striya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendraprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1997
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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