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________________ 36 ] ऐतिहासिक स्त्रियाँ नहीं हुए। महापतिव्रता सती मैनासुन्दरीको प्राणांत कष्ट हुआ, परंतु वीतराग भगवानका ध्यान कर उन्होने निश्चय किया कि अगर आज भी स्वामीके चरणारबिंदोंके दर्शन नहीं हुए तो फिर संसारके सर्व झंझटोंको छोड़ जिन दीक्षा धारण कर आत्मकल्याण करूंगी। परमब्रह्म परमात्माने उस सतीकी अति दारुण कारुणिक ध्वनि सुनकर शीघ्र ही उसके पतिके दर्शन दिये। उसी दिन महाराज श्रीपाल असीम साहस और विपुल विभूति तथा आठ हजार रानियोंके साथ उज्जैनी नगरीमें आये। अहा! आज मैनासुन्दरीके आनन्दसागरका किनारा नहीं दिखता है। स्वामीके दर्शन कर उसने अपने नेत्र तृप्त किये। कुछ दिन उज्जैनीमें रहनेके पीछे महाराज श्रीपालने दलबल सहित अपनी प्राचीन राजधानी चम्पापुरीको कुच किया तथा अपने राज्यको सम्हाल कर फिर सुवर्ण और हीरोंसे दीप्त सिंहासन पर बिराजे। मैनासुन्दरीने राजमहिषीका आसन ग्रहण किया, और फिर दोनों राजा रानी सुखसे समय बिताने लगे। एक दिन संध्या समय, जब कि महाराज श्रीपाल अपने महलकी छतपर बैठे हुए प्रकृतिकी शोभा देख रहे थे उनको एकाएक मेघपटल छिन्नभिन्न होते हुए दिखाई दिया। उनको ज्ञात हुआ कि इसी प्रकार यह संसार भी क्षणभंगुर है। यह सब एक न एक दिन नष्ट होनेवाला है। मेरा शरीर भी इसी प्रकार एक दिन नष्ट हो जायगा। परंतु अभीतक मैंने अपनी आयुका सब समय सांसारिक सुखमें ही व्यतीत किया है। परमार्थके सुखके लिये मैंने कोई उद्योग नहीं किया। इसलिये मुझे अब परमारठ सुधारनेमें प्रयत्नशील होना चाहिये। उनको इस संसारसे वैराग्य उत्पन्न हुआ और शीघ्र ही जिन दीक्षा धारण कर, वे अपने कर्म-शत्रुओंको परास्त करने
SR No.032862
Book TitleAetihasik Striya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendraprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1997
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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