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________________ 30 ] ऐतिहासिक स्त्रियाँ विपुलाचल पर्वतपर पहुंचकर स्वामीजीके उपदेश देनेको सभा (समवशरण) की प्राकृतिक रचना देखकर चकित हो गये। केन्द्रस्थलमें स्वामीजी अनुपमेय सिंहासन पर विराजमान हैं। जिनके चारों तरफ गोलाकार बारह सभास्थल बने हुए हैं। जिनमें क्रमसे मुनि, कल्पवासिनी देवियां, भवनवासी-देव, मनुष्य, विद्याधर भूमिगोचरी और तिर्यंच विराजमान हैं। सब द्वेषभाव छोड धर्म श्रवण कर रहे हैं। यद्यपि ये सभायें स्वामीजी के चारों तरफ स्थित हैं, तो भी असीम प्रभावके कारण सब श्रोतागणको यही ज्ञात होता है कि भगवान अपने मुखमण्डल की दीप्ति इसी तरफ फैलाकर उपदेश दे रहे हैं, महाराजा और महारानीने स्वामीजीके दर्शन और पूजन करके अपने जन्मको कृतार्थ समझा। नियमानुसार महारानी चेलना तीसरे और महाराजा श्रेणिक ग्यारहवें सभास्थलमें विराजमान हुए। धर्म श्रवण कर तथा कई शंकाओंकी निवृत्ति कर महाराजने अपने परिणामोंको ( अन्य निमूल मतोको बिलकुर छोड़कर) खूब स्वच्छ किया, जिससे उनको प्रबल पुण्य-कर्मोका बन्ध हुआ। इन्हीं प्रबल पुण्यकर्मोके अखण्ड प्रतापसे आगामी कालमें महीप्रभ नामक तीर्थंकर होकर जगतके पूज्य होंगे। उक्त सभामें श्री सम्मेदशिखरजीकी अनुपम महिमा सुनी, जहांसे बीस तीर्थंकर संसारके आवागमनको छोड़ परम सुख रूप मोक्षको गये हैं। इसीलिये महाराजा और महारानीने उस पुण्यभूमिके दर्शन करनेकी इच्छा की और शुभ मुहूंतमें प्रस्थान किया। परंतु उपर कह चुके हैं कि महाराजा श्रेणिकने एक जैन मुनिके गलेमें अपमानके साथ मृतक सर्प डाला था इसी पाप कर्मके उदयसे मार्गमें उन्हें कई बड़े२ विघ्नोंका सामना
SR No.032862
Book TitleAetihasik Striya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendraprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1997
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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