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________________ 22] ऐतिहासिक स्त्रियाँ नचाया है, उन कर्मोके लिये क्षमा कैसे हो सकती है? उन कर्मोके नाश करनेके लिए घोर तपश्चरणकी ही शरण है। संसारका समस्त सार देख लिया, सिवा दुःखके सुखका लेश भी नहीं है। यह प्राणी वृथा ही जंजालमें फंस ममत्व बुद्धि करता है। ___ वास्तवमें कोई किसीका नहीं। यह हमारी माता है' 'यह हमारे भाई बहिने हैं' 'यह हमारी सम्पत्ति है' इत्यादि आडम्बरोंसे यह जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण इत्यादि आठ कर्मोके बन्धनमें निरन्तर पड़ा रहता है तथा इन्हीं कर्मोके उदयसे नरक तिर्यंचादि गतियोंमें नाना प्रकारके कष्ट और यातना सहता है। जब तक यह जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र प्राप्त नहीं कर लेगा तब तक वह संसारमें निरंतर परिभ्रमण करता रहेगा। किन्तु अष्ट कर्मोके नाश होनेसे उत्पन्न हुए उस अतीन्द्रिय सुखके लेखको भी नहीं पावेगा। प्राणी मात्रका लक्ष्य सुखकी ओर है। पर यह जीव उसके प्राप्त करनेका मार्ग नहीं जानकर बांधवादिके प्रेमबंधनमें पड़कर उस सुखसे सदा बिलग ही रहता है। मैं ऐसी मंदभागिनी हूं कि अनादिसे नाना योनियोंमें परिभ्रमण किया, पर अभीतक अपने ध्येयकी प्राप्ति नहीं हुई। उस परमपद पानेका सरल उपाय जैनेन्द्री दीक्षा ही है। चारों गतियोंमें मनुष्यगति ही ऐसी गति है जिससे उत्तम क्षमादि दशधर्म, अनित्याशरणादि द्वादश भावना तथा अन्य अन्य धर्मके साधनोंको कर सकता है। जिस जीवने मनुष्य पर्याय पाकर भी कठिन तपश्चरणादिसे आत्माका कल्याण नहीं किया और केवल विषयादिककी पुष्टिहीमें इस शरीरका उपयोग किया, उन नराधमोने 'राखके
SR No.032862
Book TitleAetihasik Striya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendraprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1997
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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