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________________ श्रीमती सीताजी [11 करते बहूत समय बीत गया तो उनको संसारमें वैराग्य आया और जिनेन्द्र दीक्षाको ग्रहण करनेको उद्यत हुए। पर कैकेयीके "भरत'' संसारसे उदासीन हो पितासे भी पहले दीक्षित होना चाहते थे। कैकेयीको यह बात नही रुची। __ पति और पुत्र दोनोंका एक-साथ वियोग देख उसे बुद्धि उत्पन्न हुई और उसने विचारा कि अब उस वरको मांगनेका समय है। यदि उस वरसे अपने पुत्रको राजगद्दी दिला दूं तो मेरा पुत्र दीक्षित न होगा। बस क्या था? रानीने पतिसे अपने धरोहर वरकी याचना की। यद्यपि न्यायसे राज्यका स्वामी होना रामचंद्रको योग्य था, पर दृढ प्रतिज्ञ महाराज दशरथने ऐसा नहीं किया, अर्थात् भरत ही को राज्यका अधिकारी बनाकर दीक्षित हो गये। रामचंद्रजी सहनशील थे, पिताके आज्ञाकारी थे। इसीसे उन्होंने इस विषयमें हस्तक्षेप नहीं किया। और विचारा कि यदि हम इस राज्यमें रहेंगे तो प्रजाजन हमसे अधिक प्रेम करेंगे और हमें राज्यका अधिकारी होनेको बाधित करेंगे इसलिए यहांसे चला जाना ही उचित होगा। ___ रामचंद्रजी वनको जानेके लिये उद्यत हुए। अपने पतिको वनवास जानेको उद्यमी देखकर सीता आकुल व्याकुल हो उठी और अपने प्राणप्रियके साथ जानेका दृढ़ संकल्प कर लिया यद्यपि रामचंद्रजीने बहुत कुछ समझाया बूझाया, पर उनके हृदयमें एक भी न आई। सीता जानती थी कि, स्त्रियोंको पतिके बिना स्वर्गमें भी रहना अच्छा नहीं लगता। पति ही नारियोंका प्राण है। वही पति ही नारियोंका सर्वस्व हैं! ! हमारा इत्यादि बातें विचार कर रामके समझाने पर भी उसने अपने
SR No.032862
Book TitleAetihasik Striya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendraprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1997
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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