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________________ श्रीमती राजुलदेवी हुई, जिसमें तीनों लोक प्रत्यक्ष दिखने लगे। क्षुधा, तृषा, भय, खेद, स्वेदादि 18 दोषोंका नाश हो गया। परमात्मा अवस्था प्रगट हो गई। यह देख देवोंने समवशरणकी रचना बनाई यानी इतना विशाल सभामण्डप बनाया, जिसमें बारह सभा और अनेक ध्वजा, पताका, तोरण आदिसे सजेधजे और कितने ही स्थान बनाये। इस समवशरणमें, चार बड़े विशाल दरवाजे बने थे, जिनपर अनेक देव देवी गान करते थे। बीचोंबीचमें अत्यन्त उजवल स्फटिकमणिका सिंहासन तीन कटनियोंपर शोभायमान हो रहा था। और उसी पर श्री नेमिप्रभु अन्तरीक्ष देव देवी, मनुष्य (गृहस्थ त्यागीमुनि-अर्जिका), तिर्यञ्च, सब बैठे बैठे धर्मश्रवण करें। भगवानकी दिव्यध्वनी (वाणी) में इतना चमत्कार होता है कि उसको सब जीव अपनी अपनी भाषामें समझ जाते हैं। ____ श्री नेमिप्रभुका समवशरण (सभा) अत्यन्त विभूतिके साथ सङ्गठित हुआ। और सब जगहके भव्य जीव भगवानका उपदेश सुनने आये। इस समय श्रीमती राजुलदेवीकी परम अर्जिका, छः हजार रानियां जो कि सब भगवानके समवशरणमें अर्जिका हुई थी, उन सबकी गुरुआनी हुई, सब अर्जिकाओंको सत्पथ दर्शानेवाली, सबोंकी रक्षिका नियत हुई। अर्जिकाओंके समूहमें राजुलदेवीकी छवि अद्भूत प्रकाशमान प्रतीत होती थी। सर्वत्र धर्मोपदेश कर, कुछ दिन बाद, श्री नेमिप्रभुको मोक्ष हो गया। और समाधिमरणकर श्री राजुलदेवी स्वार्गारोहिणी हुई। धन्य है इस देवीके साहस! पतिप्रेम!! और धर्मांचरणको!!!
SR No.032862
Book TitleAetihasik Striya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendraprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year1997
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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