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________________ . . नवग्रह अरिष्टनिवारक विधान . [11 जल गन्ध पुष्पं शालि नैवेद्य, दीप धूप फल ले अनिवेद्य। जगत गुरु हो, जै जै नाथ जगत गुरु हो।चन्द्रप्रभु.॥ . ॐ ह्रीं चन्द्रारिष्टनिवारक श्री चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय पंचकल्याणक प्रासाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जल चन्दन बहु फल जु तन्दुल लीजिये। . दुग्ध शर्करा सहित सु विजन कीजिये। दीप धूप फल अर्घ बनाय धरीजिये। पूजों सोम जिनेन्द्र सुदुःख हरीजिये। ॐ ह्रीं चन्द्रारिष्टनिवारक श्री चन्द्रप्रभुजिनेन्द्राय पंचकल्याणक प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला चंद्रप्रभु चरणं सब सुख भरणं करणं आतम हिल अतुलं। दर्द जु हरणं भव 'जल तरणं, मरन हरं शुभकर विपुलं॥ भव्य मन हृदय मिथ्यात तम नाशकम्। केवलज्ञान जग-सूर्य प्रतिभासकम्॥ चंद्रप्रभु चरण मन हरण सब सुखकरं। शाकिनी भूत ग्रह सोम सब दुखहरं॥ वर्धनं चंद्रमा धर्म जलानिधि महा। जगत सुखकार शिव-माग प्रभुने महा॥ चंद्रप्रभु.॥ ज्ञात गम्भीर अति धीर वर वीर हैं। तीनहूँ लोक सब जगतके मीर हैं॥ विकट कंदर्पको दर्प छिनमें हरा। कर्म वसु पाय सब आप ही तै झरा॥ चंद्रप्रभु.॥ सोमपुर नगर में जन्म प्रभुने लहा। क्रोध छल लोभ मद मान माया दहा॥ चंद्रप्रभु, व महा /
SR No.032861
Book TitleNavgrah Arishta Nivarak Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalmukund Digambardas Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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