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________________ . .. 8] नवग्रह अरिष्टनिवारक विधान इत्यादिक साजै दुंदुभि बाजै, तीन लोक सेवत चरणं। पद्मप्रभु पूजक पानत धुजत भव भव मांगत शरणं॥ जय पद्मप्रभु पूजा कराय, सूरज ग्रह दूषण तुरत जाय। नौ योजन समवसरण बखान, घण्टा झालर सहित वितान॥ शतइन्द्र नमत तिस चरन आय, दशशत गणधर शोभा धराय। वाणी घनधोर जु घटा जोर,धन शब्द सुनत भवि नचै मोर॥ भामण्डल आभा लसत भूर, चन्द्रादिक कोट कला जु सूर। तहां वृक्ष अशोक महां उतंग, सब जीवन शोक हरे अभंग॥ सुमनादिक सुर वर्षा कराय, वे दाग चंवर प्रभुपै ढराय। सिंहासन तीन त्रिलोक इश, त्रय छत्र फिरे नग जड़त शीश॥ मत भई आवत मकरन्द सार, त्रय धुलि सार सुन्दर अपार। कल्याणक पांचों सुख निधान, पंचम गति दाता है सुजान। साढ़े बारह कोड़ी जु सार, बाजै दिन वेद बजे अपार। धरणेन्द्र नरेन्द्र सुरेन्द्र ईस, त्रिलोक नमत कर धरि ऋषीस॥ सुर मुक्त रमा वर नमत बार, दोऊ हाथ जोड कर बार बार। याके पद नमत आनंद होय, दूति आगे दिनकर छिपत जाय॥ मन शुद्ध समुद्र हृदय विचार, सुख दाता सब जनको अपार / मन वच तन कर पूजा निहार, कीजे सुखदायक जगत सार॥ ___ॐ ह्रीं सूर्यग्रह अरिष्टनिवारक श्रीपद्मप्रभु जिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। सब जन हितकारी,सुख अति भारी, मारी रोगादिक हरणं। पापादिक टारै ग्रह निरवारै, भव्य जीव सब सुख करणं॥ * इति आशीर्वादः परिपुष्पांजलि क्षिपेत् /
SR No.032861
Book TitleNavgrah Arishta Nivarak Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalmukund Digambardas Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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