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________________ प्रथम चर्चा : आचार्यश्री विद्यासागरजी के साथ चर्चा __ आचार्यश्री - क्यों? - क्यों नहीं मानते? यहीं तुम्हारी भूल है? क्या क्षायोपशमिक-चारित्र, महाव्रतों के बिना हो सकता है? ब्र. हेमचन्द - मेरी भूल हो तो क्षमा करें महाराजजी, मुझे वैसे आगम से इसमें कोई भूल दिखायी नहीं देती, क्योंकि सरागांश ही बन्ध का कारण होता है, वीतरागांश नहीं। यद्यपि महाव्रती को ही (सकल-संयमी को ही)क्षायोपशमिकचारित्र प्रगट होता है, यह सत्य है; तथापि महाव्रतरूप शुभभावों से पुण्यबन्ध होता है, अन्यथा महाव्रतों का निरतिचाररूप पालन करनेवाले नवम-ग्रैवेयक-पर्यन्त जानेवाले मिथ्यादृष्टि, ग्यारह अंग, नौ पूर्व के पाठी द्रव्यलिंगी मुनिराजों के भी निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप संवर-निर्जरातत्त्व प्रगट हुए मानना पड़ेंगे। आचार्यश्री - मैंने ज्ञानी भावलिंगी मुनियों की बात पूछी है? ब्र. हेमचन्द - हाँ महाराजजी ! तीन कषाय-चौकड़ी के अभाव/अनुदय से प्रगट हुई शुद्धता अर्थात् वीतरागतारूप शुद्धपरिणति से तो संवर-निर्जरा होती है, लेकिन संज्वलन-कषाय के उदय से प्रगट हुए शुभभाव (सराग-संयमाचरणरूप) या महाव्रतों से पुण्यबन्ध निरन्तर एक साथ होता रहता है। इसी से क्षायोपशमिक-चारित्र को मिश्रभाव संज्ञा है, क्योंकि पूर्ण वीतरागता अभी प्रगट हुई नहीं है। जो सरागांश है, उससे बन्ध और जो वीतरागांश है, उससे संवर-निर्जरा - ऐसा मैं मानता हूँ। ___आचार्यश्री - इसका मतलब है कि तुम चारित्रगुण की एक साथ दो पर्यायें मानते हो, क्षायोपशमिक और औदयिक? क्या यह सम्भव है? क्या एक ही पर्याय से दोनों कार्य मानना चाहिए? ___ ब्र. हेमचन्द - नहीं महाराजजी! मैं एक गुण की एक समय में दो पर्यायें नहीं मानता हूँ, होती भी नहीं है; परन्तु क्षायोपशमिक-पर्याय में संज्वलन का उदयांश भी तो शामिल है; इसी कारण तो उसको ‘मिश्रभाव' कहा है। ___ आचार्यश्री - तो फिर तुम महाव्रतों को क्षायोपशमिक-पर्याय से भिन्न औदयिक क्यों सिद्ध कर रहे हो? फिर हम पूछते हैं, उसे मिश्रभाव कहाँ कहा है? तुम्हें एक महाव्रतरूप कारण से दो कार्य हो सकने में क्या विरोध दिखायी पड़ता है? शुभभावों से निर्जरा नहीं मानी जाएगी तो आगम से विरोध होता है, समझे? ब्र. हेमचन्द - क्षमस्व महाराजजी! तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के प्रथम सूत्र
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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