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________________ प्रस्तावना : क्षयोपशम भाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष यथायोग्य अबुद्धिपूर्वक शुभाशुभ-रागमय परिणति तथा यथायोग्य शुभोपयोग के समय भी यथायोग्य एक, दो या तीन कषाय-चौकड़ी के अभावरूप शुद्ध-परिणतियाँ सिद्ध हो जाएँगी, परिणति (परिणमन की योग्यता) के साथ उपयोग (प्रगट परिणमन) की व्यवस्था स्वीकार की ही गई है। 23-24. प्रवचनसार गाथा 157 की टीका में जो ‘शुभोपयोग को दर्शनचारित्र-मोहनीय-कर्म की क्षयोपशम-दशा-विश्रान्त भाव' कहा है तो उसे दूसरे नाम की अपेक्षा मिश्रभाव या मिश्रोपयोग भी कहा ही जा सकता है? परन्तु यह मिश्रपना अकेले ज्ञानात्मक नहीं, बल्कि दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय मिश्रपना या ज्ञान-रागवीतरागमय मिश्रपना, शुद्धता-अशुद्धता-उपयोग का मिश्रपना ही है। यद्यपि दो अलग-अलग ज्ञानात्मक उपयोग एक साथ नहीं हो सकते हैं, लेकिन अल्पज्ञान स्वयं क्षयोपशम-भावस्वरूप होने से वहाँ ज्ञानावरणी कर्म के सर्वघाति-देशघाति-स्पर्द्धकों के क्षय-उपशम-उदय का मिश्रपना होता ही है; अत: यहाँ दो उपयोग मिलकर मिश्र नहीं हुए हैं, बल्कि मिश्ररूप एक ही उपयोग है, जो दो अलग-अलग उपयोगों से भिन्न, कोई तीसरी मिश्र-जाति का एक उपयोग है। 25-26. आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने क्षयोपशमभाव के अन्तर्गत अंश-कल्पना (येनांशेन ..... आदि) तो स्वयं पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के श्लोक 212 से 214 में की है। अंश-कल्पना, मिथ्या-कल्पना ही हो, यह सत्य नहीं है, बल्कि यह एक मिथ्या विचार है। क्षयोपशमभाव में भी अंशभेद सम्भव है, हाँ, उन्हें अलगअलग भाव नहीं माना गया है। आचार्यदेव स्वयं लिखते हैं कि जितना शुद्ध वीतराग-अंश या सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र का अंश है, वह संवर-निर्जरा का कारण है और जितना अशुद्ध शुभाशुभ-राग-अंश है, वह आस्रव-बन्ध का कारण है। स्थूलरूप से उस मिश्ररूप भाव या उपयोग को सम्पूर्णरूप से आस्रव-बन्ध और संवर-निर्जरा, दोनों का कारण मानने में कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन जब परिणामों में राग-अंश वः मुख्यता करते हैं तो उसे सराग-चारित्र या शुभोपयोग कहते हैं और उसकी मुख्यता से पण्डित टोडरमलजी ने उस भाव (अंश) से आस्रव-बन्ध माना है और जब परिणामों में वीतराग-अंश की मुख्यता करते हैं तो
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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