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________________ 42 क्षयोपशम भाव चर्चा ___ जैसे, तीन कषाय-चौकडी का अभाव करनेवाले भावलिंगी मुनिराजों का ही वह वीतरागभाव है, जो मुक्ति का कारण होने पर भी अपूर्ण होने से साक्षात् मुक्ति का कारण नहीं हो पाता, अतः विद्यमान कषायांश के कारण वे स्वर्गादि का पुण्य बाँध कर, स्वर्ग जाते हैं, अत: उनके अपूर्ण वीतरागभाव को भी किंचित् राग की विद्यमानता के कारण स्वर्गादि का कारण कह दिया जाता है। ___ इसी प्रकार वे ही धर्मात्मा साधक, जिन्होंने अवशिष्ट राग के कारण पुण्यबन्ध किया है, वे अपनी अपूर्ण वीतरागता को पूर्ण करके अर्थात् अवशिष्ट राग का भी अभाव करके कालान्तर में मुक्ति करते हैं, अत: उनके उस अवशिष्ट राग को भी परम्परा से मोक्ष का कारण कह दिया जाता है। इस प्रकार व्यवहार-वचनों के मर्म को समझा जा सकता है। __पण्डित जवाहरलालजी भीण्डर को 11.2.1994 के पत्र में मैंने स्वयं जो पूर्वोक्त 33 प्रश्न लिखे थे, उनके उत्तर तो उनके द्वारा तब मुझे प्राप्त नहीं हो सके थे, परन्तु इतने वर्षों के अन्तराल एवं स्वाध्याय के वाचना-पृच्छना-अनुप्रेक्षा-आम्नाय आदि अंगों के आधार पर अपनी बुद्धि-अनुसार, उसी क्रम में निम्न प्रकार से समाधान करने का प्रयास करता हूँ। यद्यपि इसमें गलती होने की पूरी संभावना है, अत: विद्वज्जनों से निवेदन है कि वे मेरी भूल सुधारने की कृपा करेंगे - ____ 1. यद्यपि बुद्धिपूर्वक शुभोपयोग की मर्यादा छठे गुणस्थान तक ही होती है, तथापि सातवें गुणस्थान से लेकर दशवें गुणस्थान तक अबुद्धिपर्वक शुभोपयोग या रागांश रहता ही है। लेकिन उस अबुद्धिपर्वक शुभोपयोग या रागांश को शुद्धोपयोग कदापि नहीं कहा जा सकता है, वह भी है तो बन्ध का ही कारण। ____ 2. जिस प्रकार साधक को चौथे से छठे गुणस्थान तक बुद्धिपूर्वक शुभोपयोग और सातवें से दशवें गुणस्थान तक शुद्धोपयोग के साथ अबुद्धिपूर्वक शुभोपयोग होता है; उसी प्रकार सविकल्पता-निर्विकल्पता की स्थिति भी जानना चाहिए। ___3. प्रवचनसार की चरणानुयोग-चूलिका में जो दो प्रकार के मुनि कहे हैं - शुद्धोपयोगी तथा शुभोपयोगी; वे दोनों ही हैं तो भावलिंगी ही, इनमें कोई भी द्रव्यलिंगी नहीं है, परन्तु उन्हें व्यवहार-प्रवृत्ति के आधार पर शुभोपयोगी या शुद्धोपयोगी कहा जाता है अर्थात् जो मुनिराज अधिकांशतया (भावों की तरतमता
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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