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________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' ज्ञान को गिरवी नहीं रख कर, धर्म का मर्म जान कर, स्वयं में धर्म प्रगट करने का अप्रतिहत पुरुषार्थ जागृत कर लेता है। जो किसी सम्प्रदाय, संघ या व्यक्ति से बँध जाता है, उसे सत्य पाने में भारी कठिनाई होती है, शायद पर्याय पूर्ण होने तक धर्म का स्वाद (सहज शान्ति, निराकुलत्व-लक्षण अतीन्द्रिय-आनन्दानुभूति) नहीं ले पाता है और खाली हाथ ही अगले भव में चला जाता है। 30. जिसे मात्र व्यवहार धर्म की रुचि तो हो गई और निश्चय वीतरागधर्म की चाह नहीं होती, अथवा तत्त्व-निर्णयपूर्वक मिथ्यात्व का निर्वाण नहीं करता, उसे संसार का अन्त नहीं आता। शुभकर्म जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात हैं, 'द्यानत' धर्म की नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात हैं। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-व्रत - इन बिन मुक्ति न होय, अन्ध पंगु अरु आलसी, जुदै जलै दव लोय / / उक्त समस्त तात्त्विक पृष्ठभूमि में मैं समग्र दि. जैन समाज की एकता एवं संगठन का हृदय से पक्षधर हूँ। दिनांक 20-9-94 को मेरी आचार्य श्री विद्यासागरजी से हुई तत्त्वचर्चा से मुझे लगा कि आचार्यश्री भी यही चाहते हैं कि समग्र दि. जैन समाज एक हो धर्म की महती प्रभावना करें, परन्तु आचार्यश्री के मन में सोनगढ़, जयपुर (टोडरमल स्मारक आदि) के बारे में गम्भीर गलत-फहमियाँ (Misunderstandings) बन गई हैं, जो दूर करने योग्य हैं - जैसे, (1) मुमुक्षु मण्डल के सदस्य/व्यक्ति गोम्मटसार, हरिवंशपुराणादि आगम ग्रन्थों का बहिष्कार करते हैं/निष्कासन कर देते हैं। जबकि गोम्मटसार की टीका (सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका) पण्डित टोडरमल स्मारक से ही प्रकाशित हुई हैं एवं स्वाध्याय-प्रेमी उसे भी अत्यन्त चाव से पढ़ते हैं। सत्य बात तो यह है कि कोई भी मुमुक्षु-बन्धु, प्रत्येक पूर्ववर्ती दिगम्बराचार्यों की कृतियों को गले लगाता है, परम आदरभाव से उन्हें देखता है, उनका स्वाध्याय करता है। (2) सोनगढ़/जयपुर वाले देव-शास्त्र-गुरु की उपासना/पूजा को भी पाप बतलाते हैं; जबकि वे लोग नियमितरूप से भक्ति-भाव से पंच-परमेष्ठी भगवन्तों
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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