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________________ 30 क्षयोपशम भाव चर्चा उतना शुद्धोपयोग तथा जो अंश देशघाति के उदयरूप हैं, उतने अंश में शुभोपयोग हैं - ऐसा मानना चाहिए, अर्थात् जहाँ जैसा योग्य है, उसी अनुपात में आस्रवबन्ध-संवर-निर्जरा की भी व्यवस्था मानना चाहिए। इस प्रकार बहुत सारी शंकायें-प्रतिशंकायें उत्पन्न होती हैं, जिनका समाधान नहीं हो पा रहा है। आपसे प्रत्युत्तर की अपेक्षा है।" (इसी लेख में आगे जाकर हमने स्वयं 33 वर्ष के बाद इन प्रश्नों का उत्तर खोजने की कोशिश की है।) दिनांक : 11-2-94 - राकेश जैन शास्त्री, नागपुर __इसी पत्र को हमने ब्र. हेमचन्दजी भोपाल को भी प्रेषित किया था, उनसे हमें अत्यन्त प्रेरणादायी जवाब प्राप्त हुआ था, जिसे यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं - "प्रिय धर्मभ्राता आत्मार्थी श्री डॉ. राकेश जैन शास्त्री, जैनदर्शनाचार्य सविनय जयजिनेन्द्र ! सह शुद्धात्म-स्मरण !! शोभित निज-अनुभूतियुत चिदानन्द भगवान / सार पदारथ आत्मा सकल पदारथ जान / / अत्र स्वाध्यायामृत-बलेन कुशलं! तत्राप्यस्तु!! ....... आपकी जिनागम-प्रमाण से जीवादि सप्त तत्त्वों को निश्चय (भूतार्थ/ सत्यार्थ) एवं व्यवहार (अभूतार्थ/उपचार) दृष्टियों से समझने की तीव्र रुचि प्रशंसनीय/अनुकरणीय है। ...... मुझे अन्तरंग हृदय से यह देख कर, अच्छा लगता है कि आप अनुयोगों से दोष-कल्पनाओं का निराकरण करते हुए समाधान प्राप्त करने हेतु उत्सुक हैं एवं जिनवाणी का निरन्तर स्वाध्याय-चिन्तन-रसपान करते रहते हैं? मेरी मन्द-बुद्धि में आज तक जिनवाणी के स्वाध्याय एवं विभिन्न मनीषियों के चिन्तन व प्रवचनों के माध्यम से यही निष्कर्ष हाथ लगा है कि - 1. शुभाशुभभावों/शुभाशुभोपयोग का उत्पन्न होना, मिथ्यात्व नहीं है। 2. समस्त परद्रव्य-परभावों से भिन्न निज-ध्रुव-ज्ञानानन्दमयी आत्मा में निजरूप रुचि, प्रतीति, श्रद्धा उत्पन्न हुए बिना सम्यक्त्व-लाभ नहीं हो सकता है। 3. सम्यक्त्व/ज्ञान-लाभ हुए बिना मुक्ति-मार्ग (अथवा सम्यक्चारित्र) प्राप्त नहीं हो सकता है।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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