SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' इन प्रश्नों का जो जवाब पण्डित राजमलजी साहब, भोपाल को पण्डित जवाहरलालजी भीण्डर की ओर से जो प्राप्त हुआ, उसे उन्होंने स्वयं शंकासमाधान के रूप में लिखा है, उसे हम यहाँ पाठकों के समक्ष विचार-विमर्श हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं - पण्डित जवाहरलालजी भीण्डर से प्राप्त शंका-समाधान “शंका 1 - शुभोपयोग किस गुणस्तान से किस गुणस्थान पर्यन्त होता है? प्रवचनसार में गाथा 157-60 की टीका में 'क्षयोपशम' शब्द आया है, वह मेरे विचार से ‘मन्द उदय' अर्थ में आया है। स्पष्टीकरण करें। समाधान - (अ) मिथ्यादृष्टि-सासादन-मिश्रगुणस्थानोपर्युपरि मन्दत्वेनाऽशुभोपयोगो वर्तते, ततोऽप्यसंयतसम्यग्दृष्टि-श्रावक-प्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोग-साधकः उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्तते / तदनन्तरमप्रमत्तादि-क्षीणकषाय-पर्यन्तं जघन्य-मध्यम-उत्कृष्टभेदेन विवक्षित एकदेश-शुद्धनयरूप-शुद्धोपयोगो वर्तते / अर्थात् मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र - इन तीन गुणस्थानों में ऊपर-ऊपर मन्दता से अशुभोपयोग रहता है। उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक तथा प्रमत्तसंयत नामक तीन गुणस्थान हैं, इनमें परम्परा से शुद्धोपयोग का साधक - ऐसा शुभोपयोग रहता है, जो इनमें ऊपर-ऊपर तरतमता से रहता है। इसके पश्चात् अप्रमत्तादि क्षीणकषाय तक 6 गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट के भेद से शुद्धोपयोग वर्तता है, जो कि विवक्षित एकदेश-शुद्धनयरूप होता है। (वृहद्रव्यसंग्रह टीका, गाथा 34, पृष्ठ 96, प्रकाशन देहली, प्र. संस्करण, 1953 ई.) (ब) प्रवचनसार गाथा 9 की टीका में भी कहा है - गृहस्थापेक्षया यथासम्भवं सरागसम्यक्त्व-पूर्वक-दान-पूजादि-शुभाऽनुष्ठानेन, तपोधनापेक्षया तु मूलोत्तर-गुणादि-शुभानुष्ठानेन परिणतः शुभो ज्ञातव्यः इति। मिथ्यात्वाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योग-पंच-प्रत्यय-रूपाऽशुद्धोपयोगेनाऽअशुभो विज्ञेयः / निश्चय-रत्नत्रयात्मक-शुद्धोपयोगेन परिणतः शुद्धो ज्ञातव्यः। ____ अर्थात् गृहस्थ की अपेक्षा यथासम्भव रागसहित सम्यक्त्व-पूर्वक दान, पूजा आदि (शुभकार्यों के करने से) तथा मुनि की अपेक्षा मूल व उत्तरगुणों (को अच्छी
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy