SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अष्टम चर्चा : सम्यक् पात्र-अपात्र-कुपात्र चर्चा 163 वस्तुतः द्रव्यलिंगी मुनि के स्थूल अन्यथापना नहीं होता, सूक्ष्म अन्यथापना होता है, वह सम्यग्दृष्टि को भासित होता है। उसका सूक्ष्म अन्यथापना क्या है? इसका तात्त्विक विश्लेषण आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक में व्यवहारभासी के 'सम्यक्चारित्र का अन्यथारूप' प्रकरण में पृ. 245 से 247 पर विस्तार से किया है, वहाँ से जान लेना चाहिए तथा आठवें अध्याय में पृष्ठ 274 पर उन्होंने यह भी लिखा है - _ 'जो सम्यक्त्व-रहित मुनिलिंग धारण करें व द्रव्य से भी कोई अतिचार लगाता हो (तो भी उपचार से) उसे मुनि कहते हैं; सो मुनि तो षष्ठादि गुणस्थानवर्ती होने पर होता है, परन्तु पूर्ववत् उपचार से उसे मुनि कहा (जाता) है। समवसरण में मुनियों की संख्या कही, वहाँ सर्व मुनि शुद्ध भावलिंगी नहीं थे, परन्तु मुनिलिंग धारण करने से सभी को मुनि कहा। इसी प्रकार अन्यत्र जानना।' पुन: वे आठवें अध्याय, पृष्ठ 283 पर इस प्रश्न का समाधान करते हैं - 'शंका - सम्यक्त्वी तो द्रव्यलिंगी को अपने से हीनगुणयुक्त मानता है, उसकी भक्ति कैसे करे? समाधान - व्यवहारधर्म का साधन द्रव्यलिंगी के बहुत है और उसकी भक्ति करना भी व्यवहार ही है; इसलिए जैसे कोई धनवान हो, परन्तु जो कुल में बड़ा हो, उसे कुल अपेक्षा बड़ा जान कर उसका सत्कार करता है, उसी प्रकार आप सम्यक्त्व गुण सहित है, परन्तु जो व्यवहार-धर्म में प्रधान हो, उसे व्यवहारधर्म की अपेक्षा गुणाधिक मान कर उसकी भक्ति करता है, ऐसा जानना / इसी प्रकार जो जीव, बहुत उपवासादि करे, उसे तपस्वी कहते हैं। यद्यपि कोई ध्यान-अध्ययनादि विशेष करता है, वह उत्कृष्ट तपस्वी कहलाता है, तथापि यहाँ चरणानुयोग में बाह्य तप की प्रधानता है, इसलिए उसे तपस्वी कहते हैं। इसप्रकार अन्य नामादिक जानना।' उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि यद्यपि द्रव्यलिंगी मुनि, सम्यक्त्व न होने की अपेक्षा तो कुपात्र ही है, तथापि चरणानुयोगापेक्षा उसे सुपात्र में ही गिना जाएगा, क्योंकि वह व्यवहार-संयमरूप रत्नत्रयधारी है और वह कभी भी शुद्धात्माभिमुख
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy