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________________ सप्तम चर्चा : शुभोपयोग से पुण्यबन्ध चर्चा 157 जैनदर्शन के समस्त सिद्धान्त, वस्तु-निष्ठ-विज्ञान-आधारित हैं। सर्व जीवों का एकमात्र प्रयोजन सुख की प्राप्ति करना है, दुःखों से छूटना है। सभी सुखी होने के लिए दिन-रात कोई न कोई कार्य करने में लगे ही रहते हैं। यहाँ तक कि कोई उन्हें समझाये कि प्रथम सुखस्वभावी पदार्थ की खोज करो तो वे कहते हैं - ___'भैया! हमें तो अभी मरने की भी फुर्सत नहीं है और आप कहते हैं कि स्वाध्याय करो, प्रभु भक्ति करो, आत्म-ध्यान करो, अन्याय-अनीति-अभक्ष्य का त्याग करो। लेकिन हमें तो बिना धन-प्राप्ति के कहीं भी सुख नहीं दिखायी देता। यद्यपि हम प्रतिदिन मन्दिर जाते हैं, दर्शन-पूजन भी करते हैं, तथापि कर्म पीछा नहीं छोड़ते।' इसका जवाब यह है कि आप अपने मन की व्यथा प्रतिदिन भगवान को सुनाने जाते हो, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना भगवान सुनते हैं या नहीं? या तो तुम मात्र सुनाये ही जाते हो - इस आशा से कि कभी न कभी भगवान मेरी भी सुन लेगा। अरे! आप भगवान की भी तो सुनो कि वे क्या कहते हैं ? __ भगवान ने सभी जीवों को सुखी होने का एक मात्र उपाय सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः - यह बतलाया है, वह सब चारों अनुयोगों में निबद्ध जिनवाणी में लिखा है / तुम्हें अपनी बुद्धि-प्रमाण जिस भी अनुयोग (प्रथमानुयोग-करणानुयोगचरणानुयोग-द्रव्यानुयोग) में मन लगे, उसका एकाग्र-चित्तपूर्वक स्वाध्याय करना चाहिए। आप भगवान की तो एक नहीं सुनते और अपना रोना-धोना उन्हें सुनाये चले जाते हो तथा जड़कर्मों को कोसते रहते हो, अरे! उन्हें शुभाशुभभावों को आमन्त्रण दे-दे कर बाँधे तो तुम्हीं ने हैं न? देखो भाई! तुम्हें सर्वज्ञ-कथित बातों पर विश्वास होना चाहिए, क्योंकि वे वीतरागी-सर्वज्ञ हैं, त्रिकालज्ञ हैं, वे अन्यथावादी नहीं हैं। वे तो मात्र आपको अपनी मान्यता सही कर लेने की बात कहते हैं, क्योंकि इस संसार में झूठी/ मिथ्या मान्यता जैसी कोई गरीबी नहीं और सच्ची, सम्यक् मान्यता जैसी कोई अमीरी नहीं। जब तुम भगवान की नहीं सुनते, तब वे तुम्हारी क्यों सुनें? वे तुम्हारा व्यवहार नहीं छुड़ाते हैं, बल्कि व्यवहार को निश्चय या परमार्थ मानना छुड़ाते हैं। व्यवहार तो निश्चय का प्रतिपादक या अभिव्यंजक मात्र होता है।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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