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________________ ____11 प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' क्या वह ठीक है? आचार्यदेव ने गाथा 155 में लिखा है - 'परद्रव्य के संयोग का कारण उपयोग-विशेष है। वह उपयोग, शुद्ध-अशुद्ध दो प्रकार का है। उसमें शुद्ध निरुपराग है और अशुद्ध सोपराग है। वह अशुद्धोपयोग, शुभ-अशुभरूप से दो प्रकार का है, क्योंकि उपराग विशुद्ध (मंदकषाय) संक्लेषरूप (तीव्रकषाय) दो प्रकार का है।' गाथा 156 में आचार्यदेव ने यह दर्शाया है कि ‘शुभोपयोग मन्दकषाय पुण्यरूप परद्रव्य का और अशुभोपयोग तीव्रकषाय पापरूप परद्रव्य का संयोग का कारण होता है और शुद्धोपयोग, परद्रव्य के संयोग का अकारण है।' ___श्री जयसेनाचार्यदेव ने इन गाथाओं की टीका के अन्त में लिखा है कि 'इसतरह शुभ, अशुभ और शुद्धोपयोग का सामान्य कथन करते हुए दूसरे स्थल में दो गाथायें समाप्त हुईं।' मेरे विचार से इस गाथा में सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि की मुख्यता नहीं है - सिर्फ स्वरूप का वर्णन है। मूल गाथा 157-158 में आचार्यदेव ने शुभोपयोगअशुभोपयोग का सामान्य स्वरूप व उसके आश्रय (विषय) का ही वर्णन किया है, परन्तु उनकी टीकाओं में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने उनके अन्तरंग निमित्त कारणों की भी विशेषता दर्शायी है; क्योंकि अशुद्धोपयोग सहज स्वरूप से विपरीत होने के कारण एक जाति का होने पर भी उनके भेद-विशेष की अपेक्षा से शुभोपयोगअशुभोपयोग में भाव-भिन्नता मन्द-तीव्रता है तो उसके कारणों में भी भेद होना चाहिये। जबकि श्री जयसेनाचार्य ने निमित्त कारण का वर्णन न करके उनके बाह्य आश्रय कारण का ही वर्णन किया है। शुभोपयोग का कारण क्षायोपशमदशा में रहनेवाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय रूप पुद्गलों के अनुसार परिणति में लगा होने से शुभ-उपराग होता है - मेरे विचार से अशुभोपयोग से शुभोपयोग के निमित्त कारण की भिन्नता दर्शाने के लिए विशिष्ट क्षयोपशम' शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मों के अनुभाग, असंख्यात लोक-प्रमाण हैं। इसमें जीव, दारु भाग के अनन्तवें भाग-प्रमाण निचले स्पर्धकों का अनियम उदय होने से बुद्धिपूर्वक गृहीत मिथ्यात्व को छोड़कर - व्यवहाररूप से सच्चे देव-शास्त्र-गुरु तथा तत्त्वों की श्रद्धादि करता है, पूजा भक्ति आदि कार्य करता है और त्रस-स्थावर जीवों की
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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