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________________ 138 क्षयोपशम भाव चर्चा अर्थात् इससे यह निश्चित हुआ कि स्व-पर-भेदविज्ञान के बल से स्वसंवेदनज्ञानी जीव, स्व-द्रव्य में रति-प्रवृत्ति और परद्रव्य में निवृत्ति करता है। (तात्पर्यवृत्ति) प्रवचनसार, गाथा 216 अशुद्धोपयोग हि छेदः शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात्; तस्य हिंसनात् स एव च हिंसा। ___अर्थात् अशुद्धोपयोग वास्तव में छेद है, क्योंकि उससे शुद्धोपयोगरूप श्रामण्य का छेदन होता है; उससे शुद्धोपयोगरूप श्रामण्य का हिंसन (हनन) होता है; अत: वही हिंसा है। (तत्त्वप्रदीपिका) प्रवचनसार, गाथा 217 अशुद्धोपयोगोऽन्तरंगच्छेद, परप्राणव्यपरोपो बहिरंगः / ही बहिरंग छेद है। (तत्त्वप्रदीपिका) समीक्षा - वस्तुतः आगम के बिना पदार्थों का निश्चय नहीं होता, पदार्थों के निश्चय बिना संशय रहित श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती तथा पर कर्तृत्व-अभिलाषाजनित क्षोभ और पर-भोक्तृत्व-अभिलाषा-जनित अस्थिरता के कारण एकाग्रता रूप धर्म्यध्यान भी नहीं होता और एकाग्रता के बिना निज आत्मा में श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप शुद्धात्म-प्रवृत्ति नहीं होती और शुद्धात्म-प्रवृत्ति न होने से सच्चा मुनिपना/सच्चा मोक्षमार्ग भी नहीं होता; इसलिए ‘आगम-चेट्टा तदो चेट्टा' (प्रवचनसार गाथा 232) अर्थात् शब्द-ब्रह्मरूप परमागम में प्रवीणता प्राप्त करना, प्रत्येक आत्मार्थी मुमुक्षु का परम कर्तव्य है। आगम की पर्युपासना से रहित इस जीव को आगमोपदेश पूर्वक स्वानुभव न होने से यह जो अमूर्तिक आत्मा है, सो मैं हूँ और जो एकक्षेत्रावगाही शरीर है, वह पर है, इसी प्रकार से यह जो उपयोग (ज्ञानानुभव) है, सो मैं हूँ और ये उपयोग-मिश्रित मोह-राग-द्वेष आदि भाव हैं, सो पर हैं।' इस प्रकार स्व-पर का भेदज्ञान न होने से और ऐसा स्वानुभवरूप अभेदज्ञान न होने से 'मैं एक अमूर्तिक प्रदेशों का पुंज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणों का धारी, अनादिनिधन कारणपरमात्मा हूँ, शाश्वत चैतन्यद्रव्य हूँ' - ऐसा श्रद्धान उदित नहीं होता।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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