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________________ प्रस्तावना जीव के स्वतत्त्वभूत पाँच भावों में ‘क्षयोपशमभाव' अपने आप में बहुत सारे रहस्यों को समेटे हुए है। इसे तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय में 'मिश्रभाव' कहकर सम्बोधित किया गया है। इस ‘मिश्रभाव' में पर्यायरूप सभी भावों का समावेश किया गया है। जहाँ द्रव्यरूप एकमात्र भाव पारिणामिकभाव है, वहीं पर्यायरूप चार भावों में कर्मोदय-निमित्तक-भाव 'औदयिकभाव' कहलाता है। कर्मोपशम-निमित्तकभाव ‘औपशमिकभाव' कहलाता है। कर्मक्षय-निमित्तक-भाव क्षायिकभाव' कहलाता है। लेकिन इस मिश्रभाव में कर्मोदय, कर्मोपशम, कर्मक्षय - इन तीनों कर्मों की अवस्थाओं का निमित्त होता है, इसी कारण इसे 'मिश्रभाव' कहते हैं। __ इसी भाव को उदय की प्रधानता से वेदक, क्षय व उपशम की प्रधानता से क्षायोपशमिक, उदय व उपशम की प्रधानता से उदयोपशमिक एवं तीनों क्षय, उपशम व उदय की प्रधानता से क्षयोपशमौदयिक भी कहा जाता है। इन औदयिक आदि पाँच भावों में सामान्यत: गुणों की मुख्यता होती है। लेकिन यदि द्रव्य की मुख्यता से देखा जाए तो गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं; इसलिए सभी गुणों के अलग-अलग भावों का यदि सम्मिश्रण किया जाए तो उस सम्मिश्रित भाव को धवला आदि आगम ग्रन्थों में ‘सान्निपातिक भाव' कहा है। जैसे, किसी जीव को एकसाथ श्रद्धा की अपेक्षा क्षायिकभाव है, चारित्र की अपेक्षा औपशमिकभाव है और ज्ञान की अपेक्षा क्षयोपशमभाव है, गति आदि की अपेक्षा औदयिकभाव है, और जीवत्व की अपेक्षा पारिणामिकभाव है तो समुच्चय रूप में उसके इस भाव को ‘सान्निपातिक भाव' कहा जाएगा, क्योंकि उन सभी भावों का -मिश्रण करने पर एक सन्निपात की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इसी कारण उस समय आत्मा के उस मिश्रित भाव की 'सान्निपातिक भाव' - यह संज्ञा सार्थक है।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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