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________________ 131 षष्ठम चर्चा : प्रवचनसार में शुभ-अशुभ-शुद्धोपयोग प्रवचनसार, गाथा 78 जो जीव शुभ और अशुभभावों के अविशेष दर्शन से (दोनों समान हैं - ऐसी श्रद्धा से) वस्तुस्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानता है, स्व और पर - ऐसे दो विभागों में रहने वाली, समस्त पर्यायों सहित समस्त द्रव्यों के प्रति राग और द्वेष को निरवशेष रूप से छोड़ता है; वह जीव, एकान्त से उपयोग-विशुद्ध (सर्वथा शुद्धोपयोगी) होने से जिसने परद्रव्य का आलम्बन छोड़ दिया है, ऐसा वर्तता हुआ, लोहे के गोले में से लोहे के सार का अनुसरण न करनेवाली अग्नि की भाँति प्रचण्ड घन के आघात समान शारीरिक दुःख का क्षय करता है; इसलिए यही एक शुद्धोपयोग मेरी शरण है - ततो ममायमेवैकः शरणं शुद्धोपयोगः। (तत्त्वप्रदीपिका) प्रवचनसार, गाथा 79 चत्ता पावारंभं, समुट्टिदो वा सुहम्मि चरियम्मि। ण जहदि जदि मोहादि, ण लहदि सो अप्पगं सुद्धं / / अर्थात् पापारम्भ को छोड़कर, शुभ-चारित्र में उद्यत होने पर भी यदि जीव, मोहादि को नहीं छोड़ता तो वह शुद्ध आत्मा को प्राप्त नहीं होता। अतो मया मोहवाहिनीविजयाय बद्धा कक्षेयम्। अर्थात् इसलिए मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने को कमर कस ली है। (तत्त्वप्रदीपिका) प्रवचनसार, गाथा 80 जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं / सो जाणदि अप्पाणं, मोहो खलु जादि तस्स लयं / / अर्थात् जो अरहंत को द्रव्यपने, गुणपने और पर्यायपने जानता है; वह अपने आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय को प्राप्त होता है। _ 'अथ चत्ता पावारंभं ... इत्यादि सूत्रेण यदुक्तं शुद्धोपयोगाऽभावे मोहादिविनाशो न भवति, मोहादिविनाशाऽभावे शुद्धात्मलाभो न भवति, तदर्थमेवेदानीमुपायं समालोचयति - जो जाणदि अरहंतं......... इत्थंभूतं द्रव्यगुणपर्यायस्वरूपं पूर्वमर्हदभिधाने परमात्मनि ज्ञात्वा, पश्चानिश्चयनयेन
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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