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________________ चतुर्थ चर्चा : क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन एवं चारित्र 103 सहित है, उसे संयत कहते हैं। ‘संयत' शब्द की इस प्रकार व्युत्पत्ति करने से यह जाना जाता है कि यहाँ पर द्रव्य-संयम का ग्रहण नहीं किया है। कहा भी है - वत्तावत्त पमाए, जो वसइ पमत्त संजदो होई। सयलगुणशीलकलिओ, महव्वई चित्तलायरणो।।113।। विकहा तहा कसाया, इंदिय णिद्दा तहेव पणयो य / चदु-चदु-पणमेगेगं, होंति पमादा य पण्णरसा / / 114 / / अर्थात् जो व्यक्त (स्व-संवेद्य) और अव्यक्त (प्रत्यक्ष-ज्ञानियों द्वारा जानने योग्य) प्रमाद में वास करता है, जो सम्यक्त्व-ज्ञानादि सम्पूर्ण गुणों से और व्रतों के रक्षण करने में समर्थ - ऐसे शीलों से युक्त है, जो (देशसंयत की अपेक्षा) 'महाव्रती' हैं और जिनका आचरण सारंग के समान शवलित अर्थात् अनेक प्रकार का है। अथवा चित्त में प्रमाद को उत्पन्न करनेवाला जिसका आचरण है, उसे 'प्रमत्तसंयत' कहते हैं। स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा और अवनिपालकथा - ये चार विकथाएँ, क्रोध-मान-माया-लोभ - ये चार कषायें, स्पर्शन-रसना-घ्राण-चक्षु और श्रोत्र - ये पाँच इन्द्रियाँ, निद्रा और प्रणय; इस प्रकार प्रमाद, पन्द्रह प्रकार का होता है।" ___ समीक्षा - प्रमत्त-संयत नामक छठवें गुणस्थान में संज्वलन-कषाय के देशघाति-स्पर्द्धकों का तीव-उदय होता है और अप्रमत्त सातवें गुणस्थान में इन्हीं का मन्द-उदय होता है। छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक बुद्धिपूर्वक अट्ठाईस मूलगुणों के निरतिचार पालन करने का शुभोपयोगरूप शुभभाव होता है तथा सातवें अप्रमत्तसंयत से दसवें सूक्ष्म-साम्पराय गुणस्थान तक संज्वलन के मन्द उदय से होने वाला तारतम्य रूप से घटता हुआ अबुद्धिपूर्वक शुभभावरूप रागांश और तारतम्यरूप से ही बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग रूप वीतरागांश एक साथ पाया जाता है। इस सम्बन्ध में आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 286 पर निम्न प्रकार खुलासा किया है - ___ ‘करणानुयोग में तो रागादि रहित शुद्धोपयोग, यथाख्यात-चारित्र होने पर होता है, वह मोह के नाश से स्वयमेव होता है, लेकिन निचली अवस्था वाला शुद्धोपयोग का साधन कैसे करे? तथा द्रव्यानुयोग में शुद्धोपयोग का ही मुख्य
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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