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________________ तृतीय चर्चा : सम्यक् क्षायोपशमिक भाव चर्चा के निमित्त से उत्पन्न औदयिक भाव भी नवीन बन्ध के कारण नहीं हैं। ध्यान रहे -इन तीन कर्मों का कभी भी उपशम नहीं होता; मात्र उदय, क्षयोपशम एवं क्षय ही होता है। 12 वें गुणस्थान पर्यन्त क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन-वीर्य प्रगट रहते हैं। पश्चात् 13 वें गुणस्थान से लेकर, आगे अशरीरी सिद्धावस्था में भी अनन्त काल तक क्षायिक भाव वर्तता रहता है अर्थात् अनन्त ज्ञान-दर्शनवीर्य सुख, अनन्त काल तक एक रूप प्रगट बने रहते हैं। तथा मोहनीय कर्म के उदय से जो जीव के स्वभाव नहीं हैं - ऐसे मिथ्याश्रद्धान एवं क्रोध-मान-माया-लोभादि कषायों की व्यक्तता, अनादि से ही पायी जाती है। ये ही इस जीव के औपाधिक या औदयिक चिद्विकाररूप विभावभाव हैं; इनसे ही नवीन कर्मबन्ध होता है, इस प्रकार मोह के उदय से उत्पन्न भाव ही बन्ध के कारण हैं। दर्शनमोह के उदय से अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव एवं चारित्रमोह के उदय से क्रोधादि कषायभाव होता है। स्वरूप की अश्रद्धा या अप्रतीति, स्व-पर के एकत्व का अध्यास किंवा शरीर एवं कषायों में एकत्वबुद्धि ही मोह या मिथ्यात्व है तथा स्वरूप में साम्यभाव (वीतरागता) रूप स्थिरता न होना या क्षुब्ध होना ही चारित्रमोह है। ___यह जीव, अनादि से मिथ्यादृष्टि है अर्थात् इस जीव की दृष्टि, अनादि से ही मिथ्या है। यद्यपि इसका सच्चिदानन्द द्रव्यस्वभाव या शक्तिरूप सामर्थ्य तो सदैव विद्यमान है, तथापि पर्यायदृष्टि होने से अपने को असमानजातीय-द्रव्यपर्याय जितना ही माने बैठा है तथा जिनेन्द्रदेव के अलावा, अन्यदेवादि के सेवनरूप गृहीत मिथ्यात्व को ही मिथ्यात्व जानता है, परन्तु अनादि अगृहीत मिथ्यात्व है, उसे नहीं पहिचानता। उनमें से (1) कितने ही जैन बन्धु, कुलक्रम से (2) कितने ही परीक्षा रहित आज्ञानुसारी होकर (3) कितने ही आजीविकादि सांसारिक प्रयोजन साधनार्थ (4) कितने ही धर्मबुद्धि से धर्मधारक होते हैं; परन्तु निश्चय वीतरागभावरूप आत्मधर्म को नहीं जानते; इसलिए अभूतार्थरूप व्यवहारधर्म को साधते रहते हैं।
SR No.032859
Book TitleKshayopasham Bhav Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemchandra Jain, Rakesh Jain
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2017
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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