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________________ ( 34 ) संधि-आभ्यन्तर और बाह्य दोनों प्रकार की संधि संस्कृत भाषा का प्रधान अंग है / वास्तव में प्राचीन वैदिक व लौकिक साहित्य में न केवल एक ही पद के अन्तर्गत परन्तु भिन्न-भिन्न पदों के मध्य में भी सन्धि का अभाव टूढ़े से भी नहीं मिलता है / हाँ, इने-गिने स्थल हैं जहाँ सन्धि नहीं होती, जहाँ व्याकरण की परिभाषा में प्रकृति-भाव होता है, पर इस प्रकृति-भाव के नियमों के अनुसार भी वाक्य में बार-बार संधि न करना साहित्याचार्यों की दृष्टि में दोष है / एक पद के अनन्तर जो दूसरा पद आता है उन दोनों के अन्त्य और आदि स्वरों या व्यञ्जनों में अवश्य सन्धि होती है। चाहे उन दो पदों के अर्थों का परस्पर सम्बन्ध हो चाहे न हो। एवं प्राचीन लोग दो वाक्यों के बीच में भी विराम करना नहीं चाहते थे। वे तो 'तिष्ठतु दधि अशान त्वं शाकेन'-इन दो वाक्यों को दधि और अशान पदों में सन्धि बिना नहीं पढ़ सकते थे / इ के स्थान में य कर वे इन्हें “तिष्ठतु दध्यशान त्वं शाकेन" (दही रहने दो और साग से खाना खायो) इस प्रकार पढ़ते थे। यहां यह अत्यन्त स्पष्ट है कि 'दधि' और 'प्रशान' का आपस में कोई सम्बन्ध नहीं / दधि का अन्वय 'तिष्ठतु' के साथ है, और 'प्रशान' का अगले वाक्य के गम्यमान कर्ता 'त्वं' के साथ / संस्कृत के कुछ एक अध्यापकों की ऐसी शोचनीय प्रवृत्ति है कि वे छात्रों में यह संस्कार डालते हैं कि वाक्यगत सन्धि इतनी आवश्यक नहीं है। वे इस प्रकार की सन्धि को प्रधान अंग न समझ कर केवल मात्र विवक्षा के अधीन मानते हैं। इस विचार की पुष्टि में नीचे दी हुई प्रसिद्ध कारिका का आश्रय लेते हैं 'संहितैकपदे नित्या नित्या धातूपसर्गयोः / नित्या समासे वाक्ये तु सा विवक्षामपेक्षते॥ माना कि यह कारिका वाक्य के अन्तर्गत पदों के बीच सन्धि करना वैकल्पिक कहती है, परन्तु प्रश्न उठता कि क्या यह विकल्प सीमित है या नहीं (यह व्यवस्थित विभाषा है या नहीं) ? हमारा उत्तर है कि यह विकल्प अत्यन्त सीमित है / संहिता का अर्थ है-स्वरों वा व्यञ्जनों का एक दूसरे के अनन्तर याना और सन्धि के नियम तभी लागू होते हैं, जब वाक्य के शब्दों में संहिता हो अथवा विराम न हो। साधारण तौर पर किसी वाक्य अथवा वाक्यांश के अन्त में विराम होता है, और विराम होने पर एक वाक्य की दूसरे वाक्य के साथ, अथवा एक वाक्यांश की दूसरे वाक्यांश के साथ सन्धि नहीं होती। उदाहरणार्थ-'सखे, एहि, अनुगृहाणेमं जनम्' यहां सखे और एहि के पीछे
SR No.032858
Book TitleAnuvad Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharudev Shastri
PublisherMotilal Banarsidass Pvt Ltd
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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