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________________ ( 192 ) दण्ड मृत्यु से कम न था। मेरी स्त्री और बच्चे का क्या होगा ? जब यह विचार आता तो जिगर पर पारा चल जाता। वहां ऐसे कैदियों की कमी न थी जो दिन रात आनन्द से तानें लगाते रहते थे। वे हँस-हँस कर कहा करते थे, हम तो ससुराल आये हुए हैं। अफसरों की गालियां उनके लिए मां के दूध के समान थीं। मेरे लिये उनका संगीत असह्य था। उनकी बातचीत मुझे विष' में बुझे हुए बाणों के समान चुभती थीं। मुझे उनकी प्रांखें देखकर बुखार चढ़ जाता था / ऐसा प्रतीत होता था, जैसे मुझे खा ही जायेंगे, चिड़िया बाजों में फंसी थी। संकेत-हाथ उठाने का....."कांप रहे थे प्रास्तां तावदवगुरणसाहसं मम तु पाणिपादमपि प्राकम्पत / मेरी स्त्री और बच्चे का"...."मम पत्नी पुत्रकश्च कथं वर्तिष्येते इति चिन्ताशस्त्या कृत्तमिव मे चेतः / अभ्यास-३८ बहुत मनुष्य फूट फूटकर रोते थे और अपने दिल से इच्छा करते थे कि जहाज डूबने से बच जाय / परन्तु कई धूर्त इस दुःख को देखकर खिल६ रहे थे कि प्रातःकाल मुंह अंधेरे गहरे हैं, खूब पदार्थ मिलेगा। यह दुष्ट पापी कठोरचित्त प्रसन्नता में तालियां बजाते थे, जामें में फूले नहीं समाते थे और परस्पर इस प्रकार गप्पें उड़ाते थे। एक-बस, अब जहाज के डूबने में क्या शेष है ? दूसरा-अजी पौ बारह हैं। तीसरा-तड़के ही से लैस होकर प्रा डटूंगा। चौथा-दस बारह वर्ष हुए", एक फरांसीसी जहाज इसी स्थान पर डूबा था। कई सो आदमियों की जाने गई / परन्तु यारों की खूब हण्डियां चढ़ीं / एक सन्दूक बहता हुआ इधर आ निकला / उसमें जवाहरात भरे थे। 1-1. विषदिग्धविशिखः, दिग्धः, लिप्तकः / 2-2. ज्वरित, जूर्ण-वि० / ३-ग्रस् प्रा० / 4-4. मुक्तकण्ठमरुदन् / 5-5. कथंचिन्नौव्यसनं मा भूत् / ६-हर्षोत्फुल्लमानसाः / 7-7. इतो दशसु द्वादशसु वा वत्सरेषु / इस रचना के लिये "विषयप्रवेश' देखो। 8-8. मणिमुक्तादीनां पूर्णः स (समुद्गकः)। इस षष्ठी के लिये "विषयप्रवेश' में कारकप्रकरण देखो।
SR No.032858
Book TitleAnuvad Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharudev Shastri
PublisherMotilal Banarsidass Pvt Ltd
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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