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________________ ( 184 ) मदन-मित्र, मुझे क्षमा करो तुम तो...."मित्र ! मर्षय माम्, मसंविदान इव वदसीति वक्तव्यं भवति / अकर्मक संविद् प्रात्मने होती है। मदन-निश्चय से ही ये साधन हमारी बुद्धि के वि...""नूनमेतेऽर्या बुद्धिविकासेऽङ्गभावं यान्ति मनःक्षुत्कृतं खेदं च धारयन्ति / हरि-मेरे विचार में स्वास्थ्य, सदाचार, प्रकृति निरीक्षण....."प्रयं मेऽभिसन्धिः, नगरे जीविताङ्गान्तरेभ्यः सुस्थता-सौशील्य-सर्गदर्शनादिभ्यः साध्वी नास्त्यवस्थितिः। यहाँ 'साधु' शब्द हित का पर्याय वाचक है। इसमें 'तत्र साधुः' (4 / 4 / 68) की वृत्ति प्रमाण है। मदन-मैं यह मानने के लिए....."नेदमनुमतम् मम (नेदं प्रतिपद्ये, नेतदम्युमि)। हरि-फिर यह गांवों का ही श्रेय है कि सदाचार जिसके माधार पर....... अन्यच्च ग्रामा एव स्वस्थ शरीरे स्वस्थ मनो जनयन्ति, सदाचारवृद्धये च कल्पन्ते। हरि-गांव का सरल तपोमय तथा कर्मशील जीवन....."प्रकृतिको तपोमयीं क्रियावतीं च ग्रामेषु लोकयात्रामनुभवंस्त्वं शश्वत् सन्मार्गमभिनिवेक्ष्यसे (सत्पथ एव पदमर्पयिष्यसि)। अभ्यास-३२ ( समय का सदुपयोग ) ललित-मित्र शान्त, मैं तुम्हें सदा पुस्तकों में लीन ही देखता हूँ। क्या तुम्हें आसपास के लोक-वृत्तान्त का भी तनिक ध्यान है ? शान्त-प्रिय ललित, मैं बहुत अधिक नहीं पढ़ता और जैसा कि तुम ख्याल करते हो लोकवृत्तान्त से अनभिज्ञ भी नहीं हूँ। ___ ललित-परन्तु मैं तुम्हें मनमौज करती हुई मित्र-मण्डली के साथ इधरउधर घूमते हुए कभी नहीं देखता / प्रत्युत मैं तुम्हें स्कूल के समय के बाद घर में ही कार्यव्यग्र (संलग्न) पाता हूँ। शान्त-मित्र, ललित मुझे बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने में कोई प्रसन्नता नहीं। मैं समय का मोल जानता हूँ। मैं अध्यापकों द्वारा निर्दिष्ट किये गये कार्य को नियमित रूप से करता हैं। और साधारण ज्ञान के
SR No.032858
Book TitleAnuvad Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharudev Shastri
PublisherMotilal Banarsidass Pvt Ltd
Publication Year1989
Total Pages278
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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