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________________ लक्षण व्रत कथा [19 ******************************** बोलता है और कभी भी किसीसे कठिन शब्दोंका प्रयोग नहीं और किसीसे द्वेष न होनेसे सानन्द जीवन यात्रा करता है। (3) आर्जव धर्मधारी पुरुष, क्षमा और मार्दव धर्मपूर्वक ही आर्जवधर्म (सरलता) को धारण करता है। इसके जो कुछ बात मनमें होती है, सो ही वचनसे कहता और कही हुई बातको पुरी करता है। इस प्रकार यह सरल परिणामी पुरुष निष्कपट होनेके कारण निश्चिंत तथा सुखी होता है। (4) सत्यवान पुरुष सदैव जो बात जैसी है, अथवा वह जैसी उसे जानता समझता है, वैसी ही कहता है, अन्यथा नहीं कहता, कहें हुये वचनोंको नहीं बदलता और न कभी किसीको हानि व दुःख पहुँचानेवाले वचन बोलता है। वह तो सदैव अपने वचनों पर दृढ रहता हैं। इसके उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव ये तीनों धर्म अवश्य ही होते है। वह पुरुष अन्यथा प्रलोपी न होनेसे विश्वास पात्र होता है और संसारमें सम्मान व सुखको प्राप्त होता है। ___ (5) शौचवान नर उपर्युक्त चारों धर्मोको पालता हुआ अपने आत्माको लोभसे बचाता है और जो पदार्थ न्यायपूर्वक उद्योग करनेसे उसके क्षयोपशमके अनुसार उसे प्राप्त होते है वह उसमें संतोष करता है और कभी स्वप्नमें भी परधन हरण करनेके भाव इनके नहीं होते है। यदि अशुभ कर्मके उदयसे इसे किसी प्रकारका कभी घाटा हो जाय अथवा और किसी प्रकारका द्रव्य चला जाय, तो भी यह दुःखी नहीं होता और अपने कर्मोका विपाक समझकर धैर्य धारण करता है, परंतु अपने घाटेकी पूर्तिके लिये कभी किसी दूसरेको हानि पहुँचानेकी चेष्टा नहीं करता है।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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