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________________ अध्याय -4 पुराण __ महावीर के उपदेशों का संग्रह द्वादशांग आगम के बारहवें अंग के तीसरे खण्ड प्रथमानुयोग में हैं जो पौराणिक साहित्य के रुप में ज्ञात है। महावीर के समय प्रथमानुयोग में 5000 पद थे। जिनसेनाचार्य ने “पुराण" की व्याख्या “पुरातन पुराण स्यात्” से की है। जब यह बात महापुरुषों के विषय में अथवा महान आचार्यों के उपदेश के रुप में कही जाती है तब इसे महापुराण कहा जाता है। आदिपुराण में अनेक महापुरुषों के विषय में अथवा महान आचार्यो के उपदेश के रुप में कही जाती है तब इसे महापुराण कहा जाता है। आदिपुराण में अनेक महापुरुषों का चरित निरुपण हुआ है इसलिए महापुराण कहलाता है। पुराण ग्रन्थ ऋषि प्रणीत होने से "आर्ष', सत्यार्थ का निरुपक होने से “सूक्त” तथा धर्म का प्ररुपक होने से “धर्मशास्त्र माना जाता है। "इति इह आसीत" यहाँ ऐसा हआ ऐसी अनेक कथाओं का निरुपण होने से ऋषिगण इसे “इतिहास” ऐतिह्य एंव इतिवृत्त भी मानते हैं। पुष्पदन्त के महापुराण में "अट्टहास एक पुरुषाश्रित कथा", पुराणत्रिषष्टि पुरुषाश्रिता कयाः पुराणनि का उल्लेख है। पुराणों की कथाऐं तीर्थकरों के द्वारा उपदिष्ट एंव परम्परा में चली आ रही थीं। इसी आधार पर साहित्य निर्माण सूत्रपात होने पर समय-समय पर बदलती हुयी भाषाओं में पुराणों का सृजन हुआ। जैन धर्म में मान्य त्रेशठशलाका पुरुषों के जीवन चरित्र का वर्णन करना ही पुराणों का उद्देश्य है। जैन पुराणकारों ने वैदिक धार्मिक ग्रन्थों के सुप्रसिद्ध आख्यानों को अपनाकर उनके जैनीकरण करने की प्रक्रिया भी अपने पौराणिक साहित्य में अपनायी। - विभिन्न बारह जिन परिवारों एंव शाही साम्राज्यों के वर्णन के कारण जैन पुराण बारह प्रकार के कहे गये हैं। दूसरे दृष्टिकोण से राज्य, समय, धर्म, महान व्यक्तियों एंव उनके कार्यो का वर्णन करने के परिणाम स्वरुप पुराणों के पॉच प्रकार बताये गये हैं। जैन पुराण ब्राह्मण पुराणों के अनुरुप हैं क्योंकि जैन पुराणों में भी साम्राज्य कथाओं एंव वंशों, मन्वन्तर आदि का वर्णन प्राप्त होता है / जैन पुराणों के लक्षण जैन धर्म के अनुसार विश्व को जड़चेतन रुप से अनादि एंव अनन्त माना गया है इसकी कभी न तो उत्पत्ति हुयी है न ही कभी इसका सर्वथा विनाश, बल्कि इसका विकास एंव अवनति कालचक्र के आरोह-अवरोह क्रम से ऊपर नीचे की ओर
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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