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________________ 56 जैन साहित्य का समाजशास्त्रीय इतिहास रहा था। कालक्रमानुसार आगमों का ज्ञान लुप्त एंव क्षीण होता गया। कालान्तर में जैन आत्माज्ञान की शिक्षाओं का प्रवाह इतना अधिक लुप्त हो गया कि तीर्थकंरों द्वारा दिये गये उपदेशों के मूल पाठ लुप्त हो गये। तब जैन इतिहासकारों एंव आचार्यो के लिए समस्त धार्मिक एंव दार्शनिक सिद्धान्तों के मूल पाठ को लिपिबद्ध करना आवश्यक हो गया। _ऐसी स्थिति में जैन आचार्यो द्वारा व्यक्तिगत रुप में एंव जैन इतिहासकारों द्वारा जैन इतिहास लिखना प्रारम्भ हुआ जिसका मुख्य विषय धार्मिक सिद्धान्तों का वर्णन करना था। जैन इतिहासकारों ने अपने साहित्य में महाव्रत, अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत, गुप्ति, समिति, दान, तप, शील, त्रयरत्न एंव मोक्ष आदि के विस्तृत वर्णन के साथ कर्म सिद्धान्त को स्पष्ट किया है। जैन इतिहास सर्वप्रथम आगम साहित्य में लिखा गया। आगम साहित्य पर प्रथम वाचना महावीर निर्वाण (527 ई०पू०) के 160 वर्ष पश्चात् चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल में पड़ने वाले दुष्काल के समाप्त होने पर स्थूलभद्र के नेतृत्व में पाटलिपुत्र में हुयी जिसमें श्रुतज्ञान का 11 अंगों में संकलन किया गया। इसे पाटलिपुत्र वाचना के नाम से कहा जाता है / आगमों को व्यवस्थित रुप देने के लिए दूसरी वाचना महावीर निर्वाण 827 या 840 वर्ष बाद (ईसवी सन् 300-313) में आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में हुयी जिसे माथुरी वाचना कहा गया है। इस वाचना में जिसे जो कुछ स्मरण था उसे कालिक श्रुत के रुप में संकलित किया गया। इसी समय बल्लभी में नागार्जुनसूरि के नेतृत्व में एक सम्मेलन हुआ जिसमं विस्मृत सूत्रों को पुनः स्मरण करने का प्रयत्न किया गया। इसके पश्चात् 543-466 ई०वी० में बल्लभी में ही देवर्धिगण क्षमा-श्रमण के नेतृत्व में अन्तिम सम्मेलन हुआ जिसमें वाचनाभेदों को व्यवस्थित करके माथुरी वाचना के आधार से आगमों को लिपिबद्ध किया गया। आगम साहित्य में जैन श्रमणों के आचार-विचार, व्रतसंयम, तप त्याग, गमनागमन, रोग चिकित्सा, विद्यामंत्र एंव प्रायश्चित आदि का वर्णन करने वाली परम्पराओं एंव धर्मोपदेश की पद्धतियों का वर्णन किया गया है। धार्मिक सिद्धान्तों के वर्णन के साथ ही जैन इतिहास कारों ने अरहंतो, चक्रवर्तियों, वासुदेवों, बलदेवों एंव प्रतिवासुदेवों के माता पिता जन्मस्थान, दीक्षास्थान, शिष्य-परम्परा, कठोर साधना, आर्यक्षेत्रों की सीमा उनके पूर्वभवों एंव तत्कालीन राजवंशों का वर्णन भी अपने साहित्य का विषय बनााया। इसका आधार द्वादशांग आगम के बारहवें अंग दृष्टिवाद का अवान्तरभेद प्रथमानुयोग था। जैन इतिहासकार महापुरुषों के जीवन चरित्र के माध्यम से जनसाधारण तक नैतिक भावनाओं को पहुंचाने के साथ ही आध्यात्मिक वातावरण समाज में उत्पन्न करना चाहते थे। आगम साहित्य में वर्णित इतिहासकारों के विषय का विकास आगम साहित्य पर लिखी जाने वाली टीकाओं, नियुक्तियों, चूर्णियों एंव भाष्यों में पाया जाता है। इस
SR No.032855
Book TitleJain Sahitya ka Samajshastriya Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUsha Agarwal
PublisherClassical Publishing Company
Publication Year2002
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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