SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानानन्द श्रावकाचार श्रावक के अंतराय आगे श्रावक के चार प्रकार के अंतरायों का कथन करते हैं - (1) मदिरा, मांस, हड्डि, कच्चा चमडा, चार अंगुल लम्बी खून की धारा, बडा पंचेन्द्रिय मरा जीव, विष्टा-मूत्र, चूहा इन आठों को तो प्रत्यक्ष आंख से देख लेने मात्र से ही भोजन में अंतराय हो जाता है / ___ (2) उपरोक्त आठ तथा सूखा चमडा, नख, केश, ऊन, पंख, असंयमी स्त्री अथवा पुरुष (अथवा) बडा पंचन्द्रिय तिर्यन्च, रजस्वला स्त्री, प्रतिज्ञा का भंग, मल-मूत्र करने की शंका, मुर्दे का स्पर्श, कांख में से मरे हुये त्रस जीव का निकलना, अथवा बाल का निकलना, कांख में अथवा हाथ आदि स्वयं के अंग से किसी दो इन्द्रिय आदि बडे त्रस जीव का घात हो जाना इत्यादि का भोजन के समय स्पर्श होजाना भोजन में अंतराय हो जाता है। ___ (3) मरण आदि के दु:ख के कारण उसके विरह में किसी के रुदन को सुनना, लगी आग के समाचार सुनना, नगर आदि में मरण (मारकाट) को, धर्मात्मा पुरुष पर उपसर्ग को, मृतक मनुष्य का (के समाचार को), किसी का नाक कान छेदन का, किसी चोर आदि को मारने के लिये ले जाने का, चंडाल के बोलने का, जिनबिम्ब अथवा जिनधर्म के अविनय का, धर्मात्मा पुरुष का अविनय हुआ हो उसका इत्यादि महापाप के वचन स्वयं को सत्य प्रतीत हुये हों तो ऐसे शब्द सुनने पर भोजन में अंतराय है। ___(4) भोजन करते हुये ऐसी शंका हो जाना कि यह सब्जी तो मांस जैसी है, अथवा लहू जैसी है, अथवा हड्डी जैसी है, अथवा चमडे जैसी है, अथवा बिष्टा या शहद इत्यादि निंद्य वस्तु जैसी है, तो भोजन में अन्तराय है / पर भोजन में निंद्य वस्तु की कल्पना तो हो जावे पर मन में उसका (उसकी वास्तविकता का) जानपना हो तो अन्तराय नहीं होता / इसप्रकार नेत्र से देखने के आठ, स्पर्श के बीस, सुनने के दस, मन के
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy