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________________ 52 ज्ञानानन्द श्रावकाचार डुबोवेगा / ऐसा जानकर बुद्धिमान पुरुषों को सर्व प्रकार से कुपात्र को दान देने का त्याग ही करना चाहिये / सुपात्र को दान देना उचित है। ___ गृहस्थ के घर की शोभा धन से है तथा घर की शोभा दान से है / धन प्राप्त होता है वह धर्म से ही प्राप्त होता है, धर्म के बिना एक कौडी भी पाना दुर्लभ है / यदि अपने किये पुरुषार्थ से ही धन की प्राप्ति होती हो तो पुरुषार्थ तो सभी जीव कर रहे हैं / एक-एक जीव का तृष्णा रूपी गड्डा इतना विशाल गहरा है कि उसमें डाली गयी तीन लोक की सम्पदा भी परमाणु मात्र ही दिखाई देती है / ऐसे तृष्णा रूपी गड्डे को सभी जीव भरना चाहते हैं परन्तु आज तक किसी भी जीव के द्वारा भरा नहीं जा सका (किसी भी जीव की तृष्णा पूर्ण नहीं हो सकी)। इसलिये सत्पुरुष तो तृष्णा को छोडकर संतोष को प्राप्त हुये हैं, तथा त्याग वैराग्य की उपासना करते हैं, एवं उसी के प्रसाद से ज्ञानानन्द मय निराकुल शांत रस से पूर्ण सूक्ष्म, निर्मल केवलज्ञान लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं, तथा अविनाशी, अविकार, सर्व दोषों से रहित, परमसुख को सदैव प्रति समय अनन्तकाल पर्यन्त भोगते हैं / निर्लोभता का ऐसा फल है / अतः सभी जीव निर्लोभता को सर्व प्रकार उपादेय जानकर उसकी उपासना करो, कृपणता को दूर ही से तजो। ___ आगे दुःखित भूखों को दान देने का विशेष कथन करते हैं - अंधे, बहरे, गूंगे, लूले, लंगटे बालक, वृद्ध, स्त्री, रोगी, घायल, भूखे, सर्दी से पीडित, बंधे हुये अथवा क्षुधा-तृषा - शीत से पीडित तिर्यन्च, प्रसूती स्त्री, कुत्ती, बिल्ली, गाय, भैंस, घोडी आदि जिसका कोई रक्षक, सहायक न हो अथवा पति न हो (विधवा हो) तथा पहले कहे हुये मनुष्य, तिर्यन्च हैं वे सब अनाथ, पराधीन, गरीब, तथा दु:खी हैं / दुःख से महाकष्ट सहते हैं, तथा विलाप करते, एवं दीन वचन कहते हैं / दु:ख सहने में असमर्थ हैं, उनके अपने दु:ख के कारण उनका चहरा रुआंसा हो गया है, शरीर से
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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