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________________ श्रावक-वर्णनाधिकार देना / अथवा पूर्व में कही गयी वस्तुओं (उनमें से किसी भी वस्तु) का व्यापार करा देना / नाना प्रकार की खोटी चतुराई अथवा अक्ल दूसरों को सिखाना। अथवा राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा, देशकथा इत्यादि नाना प्रकार की विकथाओं का उपदेश देना, ऐसा पापोपदेश का स्वरूप जानना। दुःश्रुत अब दुःश्रुत का स्वरूप कहते हैं / दुःश्रुत अर्थात खोटी कथाओं का सुनना, कामोत्पादक कथा, भोजन कथा, चोर कथा, देश कथा, राज्य कथा, स्त्री-वेश्या-नृत्यकी की कथा, अथवा युद्ध, कलह, झगडे, संग्राम, भोग की कथा, स्त्री के रूप-हावभाव-कटाक्ष की कथा, ज्योतिष, वैद्यक, मंत्र-तंत्र-यंत्र, स्वरोदय की कथा, खेल-तमाशा इत्यादि पाप (बंध) के कारणों की कथाओं के सुनने को दुःश्रुत श्रवण कहते हैं / इसप्रकार बिना प्रयोजन के होने वाले महापाप को अनर्थदण्ड कहते हैं / इसके त्याग को अनर्थदण्ड त्याग व्रत कहते हैं / इसप्रकार तीन गुणव्रतों का स्वरूप जानना चाहिए। (9) सामायिक व्रत अब सामायिक व्रत का स्वरूप कहते हैं / सांझ , सुबह और मध्यान्ह के समय, इन तीनों समय तीन बार सामायिक करे / (सामायिक का विशेष कथन आगे करेंगे) (10) प्रोषध व्रत अष्टमी, चतुर्दशी को प्रोषध उपवास करे, उसका स्वरूप आगे (तीसरी प्रोषध प्रतिमा के कथन में) कहेंगे / (11) भोगोपभोग व्रत आगे भोगोपभोग व्रत का स्वरूप कहते हैं / जो वस्तु एक बार ही भोगने में आवे, उसे भोग कहते हैं, जैसे भोजन आदि / एक ही वस्तु को बार-बार भोगा जा सके, जैसे स्त्री, कपडे, जेवर आदि को उपभोग कहते हैं / इनका नित्य चार-चार पहर (बारह बारह घंटे) के लिये प्रमाण कर
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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