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________________ परिशिष्ठ -1 297 आदि खाकर महाकष्ट सहित नाना प्रकार की वेदना सहते, छोटे से (मां के ) पेट में उदराग्नि में जलते हुये, जहां पवन का संचार नहीं, ऐसी अवस्था को धारण किये नव मास नरक के सदृश्य दुःखों से पूर्ण किये। फिर गर्भ के बाहर निकला, बाल अवस्था के दु:खों से भरे फिर तीन वर्ष पूर्ण किये। इसप्रकार तीन वर्ष नव मास का भावार्थ जानना / ___ इस अवस्था से पूर्व में जो अवस्था हुई उसका जानपना तो हमें है नहीं / कुछ पिछले जानपने की याद है वह कहते हैं / तेरह चौदह वर्ष की अवस्था होने पर स्वयमेव विशेष बोध हुआ, जिससे ऐसा विचार होने लगा कि जीव का स्वभाव तो अनादिनिधन अविनाशी है / धर्म के प्रभाव से सुख होता है, पाप के निमित्त से दुःख होता है / अतः धर्म ही का साधन करना चाहिये, पाप का साधन नहीं करना चाहिये। परन्तु शक्ति हीनता के कारण अथवा यथार्थ ज्ञान के अभाव के कारण उत्कृष्ट उपाय तो बना नहीं / सदैव परिणामों की वृत्ति ऐसी रही कि धर्म भी प्रिय लगे तथा इस पर्याय सम्बन्धी कार्य भी प्रिय लगे। सहज ही दयालु स्वभाव, उदारचित, ज्ञान-वैराग्य की चाह, सत संगति में रहना, गुणीजनों के चाहक होते हुये इस पर्याय रूप प्रवर्तते रहे / मन में ऐसा संदेह उत्पन्न होता कि सदैव इतने मनुष्य उत्पन्न होते हैं, इतने तिर्यन्च उत्पन्न होते हैं, इतनी वनस्पति उत्पन्न होती है, इतना अनाज, सप्त धातु, षटरस, मेवा आदि नाना प्रकार की वस्तुयें उत्पन्न होती हैं, वे कहां से आती हैं तथा विनश कर कहां जाती हैं ? परमेश्वर को इनका कर्ता कहा जाता है, वह कर्ता परमेश्वर तो कहीं दिखता नहीं है / ये तो स्वयं उत्पन्न होती, स्वयं विनशती दिखती है, इनका स्वरूप किससे पूछा जावे ? ऊपर-क्या क्या रचना है, नीचे क्या-क्या रचना है, पूर्व आदि चार दिशाओं में क्या-क्या रचना है, उनका जानपना किसी को है अथवा नहीं है ? ऐसा संदेह कैसे मिटे ?
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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