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________________ 295 कुदेवादि का स्वरूप स्वयं को पुजाना चाहते हैं, कई राजा आदि से स्वयं को पुजाकर बहुत प्रसन्न होते हैं तथा नहीं पूजने वाले पर क्रोध करते हैं, कई कान फडवाकर भगवां कपडे पहनते हैं तथा मठ बनवाकर लाखों रुपयों की दौलत रखते हैं तथा गुरु कहलवाने की ठसक रखते हैं, भोले जीवों से पांव पडवाते हैं, इत्यादि नाना प्रकार के कुगुरु हैं, उनका कहाँ तक वर्णन करें ? ___ अब युक्ति पूर्वक समझाते हैं - यदि नग्न रहने से ही कल्याण होता हो तो तिर्यन्च सदैव नग्न रहते हैं, उनका कल्याण क्यों न हो ? राख लगाने से कल्याण होता हो तो गधे सदैव राख में लोटते हैं, उनका कल्याण क्यों न हो ? सर मुंडाने से कल्याण होता हो तो भेड को बार-बार मूंडते हैं, उसका कल्याण क्यों न हो ? स्नान करने से ही कल्याण होता हो तो मैंढक, मछली आदि जलचर जीव सदैव पानी में रहते हैं, उनका कल्याण क्यों न हो ? जटा बढाने से कल्याण होता हो तो बड आदि पेडों की धरती पर्यन्त जटा बढी रहती है / इत्यादि ऐसा करने वाले सर्व कुगति के पात्र हैं, ऐसा जानना। __श्रीगुरु और भी कहते हैं - हे पुत्र ! तुझे दो बाप का बेटा कहें तो तू लडने को तैयार हो जावेगा पर तेरे दो गुरु बतावें तो तू अंश मात्र भी बुरा नहीं मानेगा / माता-पिता तो स्वार्थ के सगे हैं, उनसे एक पर्याय का सम्बन्ध है, उनसे तो तेरी इतनी ममत्व बुद्धि है तथा जिन गुरुओं का सेवन करने से जन्म-मरण के दु:ख दूर होते हैं तथा स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति होती है उनके सम्बन्ध में तेरी ऐसी प्रतीति है वह तेरी ऐसी परिणति तुझे सुखदायी नहीं है / अत: यदि तू अपने हित की इच्छा रखता है, तो एक सर्वज्ञ, वीतराग देव के वचनों को अंगीकार कर तथा उन्हीं के वचन के अनुसार देव, गुरु, धर्म का श्रद्धान कर / इति श्री श्रावकाचार ग्रन्थ की भाषा वचनिका सम्पूर्ण हुई। .
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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