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________________ 15 वंदनाधिकार तरह अचल हैं, नासाग्र दृष्टि धरे हैं, संसार से अत्यन्त उदासीन हैं, स्वयं के स्वरूप में अत्यन्त लीन हैं / इस आत्मिक सुख के लिये राज्य लक्ष्मी को सडे नि:सार तृण की तरह छोड दी है, तब इनके लिये अपनी क्या गिनती है ? तथा कोई ऐसा कहते हैं - हे भाई ! अपनी तो इन्हें क्या परवाह है यह सत्य है, परन्तु ये परम दयालु हैं महा उपकारी हैं, तारणतरण में समर्थ हैं, इसलिये ध्यान खुलने पर अपना भी कार्य सिद्ध करेंगे। कुछ इसप्रकार कहते हैं - देखो भाई ! मुनिराज की कांति और देखो भाई ! मुनिराज का अतिशय तथा मुनिराज का साहस जो कांति के द्वारा दसों दिशाओं में उद्योत (प्रकाश) किया है , तथा (उनके) अतिशय के प्रभाव से मार्ग के सिंह, हाथी, व्याघ्र, रीछ, चीता, मृग इत्यादि बैरभाव छोडकर मुनिराज को नमस्कार कर पास-पास बैठे हैं / मुनिराज का साहस ऐसा है कि ऐसे क्रूर जानवरों की प्राप्ति (मिल जाने) का भय होते हुये भी इस उद्यान में बिराजमान हैं तथा ध्यान से क्षण मात्र भी चलायमान नहीं हैं, उल्टा क्रूर जानवरों को भी ऐसा मोह लिया है / यह बात न्याय की ही है कि जैसा निमित्त मिलता है, वैसा ही कार्य उत्पन्न होता है, इस ही से मुनिराजों की शान्ति को देखकर क्रूर जानवर भी शान्ति को प्राप्त हुये हैं तथा कुछ (लोग) ऐसा कहते हैं कि हे भाई ! मुनियों का साहस अद्भुत है कौन जाने ध्यान खुले न खुले , इसलिये यहां से नमस्कार कर घर चलो फिर आयेंगे / कोई उसका ऐसा उत्तर देते हैं, हे भाई ! अभी क्या जल्दी लग रही है / श्री गुरु की वाणी रूपी अमृत को पीये बिना ही घर जाने में क्या सिद्धि है / तुम्हें तो घर अच्छा लगता है, हमें तो लगता नहीं / हमें तो मुनिराजों के दर्शन उत्कृष्ट प्रिय लगते हैं / मुनिराज का ध्यान अब खुलेगा, बहुत देर हो चुकी है , इसलिये कोई विकल्प मत करो / अन्य कोई ऐसा कहता है, हे भाई ! आपने यह अच्छा कहा, आपको अत्यन्त अनुराग है / (ऐसे) श्रावक धन्य हैं। इसप्रकार परस्पर वार्तालाप हुये तथा (शिष्यजन) मन में विचार
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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