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________________ 283 कुदेवादि का स्वरूप नहीं / जीवों के भ्रम बुद्धि ऐसी है, जैसे किसी पुरुष को महादाह ज्वर हुआ हो तथा पुन: अग्नि आदि ऊष्णता का ही उपचार करें तो उस पुरुष को शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? उसीप्रकार पहले ही यह जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त हो रहा है तथा फिर भी मिथ्यात्व का ही सेवन करे तो यह जीव कैसे सुखी हो सकता है तथा उसे कैसे शान्ति प्राप्त हो सकती है। कुछ लोग महादेव को अयोनि, शंभु, तारण-तरण मानते हैं तथा उसके द्वारा सर्वसृष्टि का संहार किया जाना मानते हैं। उसे महाकामी मानते हैं, उसके गले में मनुष्यों के मस्तकों की माला मानते हैं / उसे कामी कैसे मानते हैं ? वह कहते हैं - महादेव का आधा शरीर स्त्री का तथा आधा शरीर पुरुष का है, अत: उसे अर्धांगी कहा जाता है। वह स्त्री में रागी है ? उससे कहते हैं - हे भाई ! ऐसा सारी सृष्टि के मारने वाला एवं महाविडरूप जो हो वह पुरुष तारने में कैसे समर्थ होगा ? जिसका नाम सुनने पर ही ताप उत्पन्न हो उसका दर्शन करने पर सुख कैसे उत्पन्न होगा ? यह तो जगत में न्याय है कि जैसा कारण मिले वैसा ही कार्य सिद्ध होता है। इसका उदाहरण कहते हैं- जैसे अग्नि के संयोग से दाह ही उत्पन्न होता है तथा जल के संयोग से शीतलता ही उत्पन्न होती है। कुशील स्त्री के संयोग से विकार भाव उत्पन्न होते हैं तथा शीलवान पुरुष के संयोग से विकार भाव भी नष्ट हो जाते हैं। विषपान करने से प्राणों का हरण होता है, अमृत पीने से प्राणों की रक्षा होती है। सिंह, व्याघ्र, सर्प, हाथी, रोग आदि के संयोग से भय ही उत्पन्न होता है तथा दयालु साधुजनों के संयोग से निर्भय आनन्द ही उत्पन्न होता है। ऐसा तो होता नहीं है कि अग्नि के संयोग से शीतलता हो तथा जल के संयोग से उष्णता हो जाती हो, इत्यादि इसीप्रकार जानना / अत: हे भाई ! महादेव का जो निजरूप (वास्तविक स्वरूप ) है वह बताते हैं - ऐसे महादेव अर्थात रुद्र चतुर्थ काल में कुल ग्यारह ही उत्पन्न होते हैं, उनकी उत्पत्ति कैसे होती है वह बताते हैं।
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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