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________________ निर्ग्रन्थ गुरु का स्वरूप 269 मिथ्यात्व पाया जाता है। वे नाना प्रकार के दुर्द्धर तपश्चरण करते हैं। अठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं तथा बाइस परिषह सहते हैं। छियालीस दोष टालकर आहार लेते हैं व अंश मात्र भी कषाय नहीं करते हैं। सर्व जीवों के रक्षक होकर जगत में प्रवर्तते हैं। नाना प्रकार के शील संयम आदि गुणों से आभूषित हैं। नदी, पर्वत, गुफा, मसान, निर्जन, सूखे वन में जाकर ध्यान करते हैं। मोक्ष की ही अभिलाषा लिये प्रवर्तते हैं, संसार भ्रमण के भय से डरते हैं। केवल मोक्ष लक्ष्मी के अर्थ ही राज्य आदि विभूति छोडकर दीक्षा धारण की है, ऐसा होने पर भी वे कदाचित् मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते हैं। __ मोक्ष क्यों नहीं प्राप्तकर पाते हैं ? इनके सूक्ष्म केवलज्ञान गम्य मिथ्यात्व का प्रबलपना पाया जाता है, अत: मोक्ष के पात्र नहीं हैं। संसार का ही पात्र है तो फिर जिसके बहुत प्रकार मित्यात्व का प्रबलपना हो उसको मोक्ष कैसे होगा / भ्रम बुद्धि से झूठ ही मानें तो मोक्ष होना तो है नहीं / इसका दृष्टान्त क्या ? जैसे अज्ञानी बालक मिट्टी का हाथी, घोडा आदि बनाता है तथा उन्हें सत्य मानकर बहुत प्रीति करता है, उसे पाकर बहुत खुश होता है / कोई उन्हें फोड दे, तोड दे, जलादे तो बहुत दु:खी होता है, रोता है, छाती माथा कूटता है / उसे यह ज्ञान नहीं कि ये तो झूठे कल्पित थे। उसीप्रकार अज्ञानी पुरुष मोही होता हुआ बालकवत कुदेव आदि को तारण-तरण जानकर सेवन करता है / उसे ऐसा ज्ञान नहीं कि ये स्वयं तैरने (संसार समुद्र पार करने) में असमर्थ हैं, मुझे कैसे तिरावेंगे ? / पुनः दृष्टान्त कहते हैं - कोई पुरुष कांच का टुकडा पाकर उसमें चिन्तामणि रत्न होने की भ्रम बुद्धि करे, यह जाने कि यह चिन्तामणि रत्न है, मुझे बहुत सुखकारी होगा, मुझे वांछित फल देगा / इसप्रकार भ्रम बुद्धि करके कांच के टुकडे को पाकर प्रसन्न हो तो क्या वह कांच का टुकडा चिन्तामणि रत्न होगा ? कभी नहीं हो सकता / आवश्यकता पड़ने
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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