SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 264 ज्ञानानन्द श्रावकाचार अतः भव्य जीवों को सिद्ध का स्वरूप जानकर अपने स्वभाव में लीन होना उचित है / सिद्ध के स्वरूप में तथा अपने स्वरूप में सदृश्यता है / अतः सिद्ध का स्वरूप जानकर अपने निजस्वरूप का ध्यान करना / बहुत कहने से क्या ? ज्ञाता इसीप्रकार अपने स्वरूप को जानता है / इति सिद्ध स्वरूप वर्णन सम्पूर्णम् / कुदेवादि का स्वरूप-वर्णन आगे कुदेव आदि के स्वरूप का वर्णन करते हैं / जिसे हे भव्य ! तुम सुनों / देखो जगत में भी यह न्याय है कि जो अपने से गुणों में अधिक हो अथवा जो अपने लिये उपकारी हो उसे नमस्कार किया जाता है अथवा पूजा जाता है / जैसे राजा तो गुणों में अधिक है तथा माता-पिता आदि उपकार के कारण अधिक हैं, उन्हें ही जगत पूजता है; वंदना करता है / ऐसा नहीं है कि सजा आदि बडे पुरुष तो जनता के लोगों की अथवा रंक (निर्धन-दरिद्र) आदि पुरुषों की वन्दना करें तथा माता-पिता आदि अपने पुत्र की वन्दना करें, पूजें / ऐसा तो देखा जाता नहीं है / यदि कदाचित बुद्धि की अल्पता, दीनता से राजा आदि बडे पुरुष किसी नीच पुरुष की पूजा करें तथा माता-पिता भी बुद्धि की हीनता से पुत्र आदि की पूजा करें तो जगत में हास्य एवं निंदा के पात्र होते हैं। इसका दृष्टान्त है जैसे सिंह हो तथा सियाल की शरण चाहता हो तो वह हास्य को ही प्राप्त करता है, यह युक्त ही है / उसीप्रकार धर्म में अरिहन्त आदि उत्कृष्ट देवों को छोडकर जो कुदेव आदि को पूजता है, तो क्या वह लोक में हास्य का पात्र नहीं होगा ? तथा परलोक में नरक आदि के दु:ख तथा क्लेश नहीं सहेगा ? अवश्य सहेगा / वह ये दु:ख क्यों सहेगा यह बताते हैं। __ आठ प्रकार के कर्मों में मोह नामक कर्म सबका राजा है / उसके दो भेद हैं - (1) चारित्र मोह (2) दर्शन मोह / चारित्र मोह तो इस जीव को
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy