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________________ मोक्ष सुख का वर्णन 257 बना रहता है / दूसरी ओर महल का स्वभाव तो सम्पूर्ण ही ज्ञान को घातने का है। इस ही प्रकार शरीर रूपी महल में यह आत्मा कर्मो के द्वारा बंदी बना दिया गया है / वैसे (उपरोक्त प्रकार) ही यहां पांच इन्दियों रूपी झरोखे हैं तथा मन रूपी सिंहासन है / यह आत्मा इसप्रकार जिस इन्द्रिय के द्वारा अवलोकन करता है उस ही इन्द्रिय के अनुसार पदार्थ को देखता है तथा मन के द्वारा अवलोकन करता है तो मूर्तिक, अमूर्तिक सब पदार्थ ही प्रतिभातिस होते हैं तथा यदि यह आत्मा शरीर रूपी बन्दीखाने से मुक्त हो तो मूर्तिक, अमूर्तिक लोकालोक के तीनों काल सम्बन्धित चराचर पदार्थ एक समय में युगपत प्रतिभासित होते हैं / यह स्वभाव आत्मा का है कोई शरीर का तो है नहीं / शरीर के निमित्त से तो ज्ञान उल्टा घटता जाता है एवं इन्द्रियों तथा मन के निमित्त से ज्ञान किंचित मात्र खुला रहता है, ऐसे ही निर्मल जाति के कुछ परमाणु उन इन्द्रियों तथा मन के लगे हुये हैं, जिनके कारण किंचित मात्र दिखना (जानपना) होता रहता है। दूसरी ओर शरीर का स्वभाव तो इतने मात्र ज्ञान का भी घात करने का है / जिसने निज आत्मा का स्वरूप जाना है, उसका तो यह चिन्ह होता है कि आत्मा में अन्य गुण तो बहुत हैं तथा उन में से बहुत (कुछ) गुणों को जानता भी है, पर तीन गुण विशेष हैं उनको जाने वह अपने स्वरूप को जाने ही जाने तथा उन तीन गुणों को जाने बिना कदाचित तीन काल में भी निज स्वरूप की प्राप्ति होती नहीं अथवा उन तीन गुणों में से दो ही को भली प्रकार जाने तो भी निज सहजानन्द को पहचान ले / दो गुणों की पहचान के बिना स्वरूप की प्राप्ति तीन काल, तीन लोक में भी होती नहीं, वही कहते हैं। गुणों की पहचान और स्वरूप की प्राप्ति :- प्रथम तो आत्मा का स्वरूप ज्ञाता-दृष्टा है, यह जाने / यह जानपना है वही मैं हूं तथा मैं हूं
SR No.032848
Book TitleGyananand Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaimalla Bramhachari
PublisherAkhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust
Publication Year2010
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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